ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर का मुद्दा एक बार फिर से गर्म है. भारत में समाज का एक बड़ा धड़ा ऐसा भी है, जो यह मानता है कि भारत ने पाकिस्तान के साथ सीज फायर कर गलत किया. अबकी बार आर-पार की लड़ाई कर पाकिस्तान से उसके कब्जे वाला जम्मू-कश्मीर ले लेना चाहिए था. जो पूर्ववर्ती सरकार की अदूरदर्शी नीतियों के कारण पाकिस्तान ने कब्जा में लिया था.
हालांकि बहुत कम लोगों को यह पता है कि 9 फरवरी 1963 को भारत और पाकिस्तान के बीच कराची में एक समझौता हुआ था, जिसमें तत्कालीन नेहरू सरकार जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा भू-भाग पाकिस्तान को देने पर राजी हो गई थी. नेहरू ने इसके बदले पाकिस्तान से करगिल क्षेत्र की कुछ सैन्य चौकियां मांगी थीं, जिन्हें बाद में 1965 व 1971 के युद्ध में भारतीय सेना ने अपने कब्जे में ले लिया था. गनीमत यह रही तब के पाकिस्तानी विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपने लालच के चलते यह प्रस्ताव मानने से इनकार कर दिया था.
लालची भुट्टो ने अपनी विभाजन रेखा खुद तय की थी. उन्होंने भारत की ओर से प्रतिनिधित्व कर रहे सरदार स्वर्ण सिंह से जम्मू के उत्तर का पूरा इलाका देने की मांग की थी. जिसमें चेनाब घाटी और डोडा जिला भी शामिल था. साथ ही भुट्टो ने इसे भी रियायत करार देते हुए कहा था कि पाकिस्तान तो पूरा जम्मू-कश्मीर चाहता है. सरदार स्वर्ण सिंह ने भुट्टो का प्रस्ताव मामने से मनाकर दिया था. लेकिन अगर सोचो भुट्टो लालच न करता और वह भारत का प्रस्ताव मान लेता, तो आज कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में होता, जो वर्तमान परिस्थितियों में भारतीय सेना की एक बड़ी कमजोरी होती.
भारत का सबसे टॉप सीक्रेट है यह प्रस्ताव
इस प्रस्तावों को भारत सरकार के भीतर भी गुप्त रखा गया था. इतना ही नहीं, भुट्टो ने यह भी अनुरोध किया कि भारत को यह भी पता नहीं चलना चाहिए कि पाकिस्तान ने इन प्रस्तावों को अमेरिकियों और ब्रिटिशों को लीक कर दिया है. इसे आज तक भारत में टॉप सीक्रेट माना जाता है. हालांकि कानूनी प्रक्रियाओं के चलते अमेरिकी सरकार ने राजनयिक टेलीग्राम को प्रस्ताव के दस्तावेज दे दिए थे. जिसे कर्नल अनिल ए अठाले (सेवानिवृत्त) ने 2003 में कैनेडी फेलो के रूप में काम करते समय राजनयिक टेलीग्राम से प्राप्त किया था.
हालांकि यह सिर्फ इकलौता मामला नहीं है, जब कांग्रेस नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती सरकारों ने अदूरदर्शिता दिखाते हुए भारत के भू-भाग से समझौता किया हो. इसके अलावा 1950 में नेहरू ने प्रधानमंत्री रहते हुए कोको द्वीप को म्यांमार और 1974 में इंदिरा गांधी ने कच्चातीवु द्वीप श्रीलंका को सौंप दिया था.
इंदिरा गांधी ने कच्चातीवु द्वीप श्रीलंका को सौंपा
कच्चातिवु द्वीप एक समुद्री टापू है, जो भारतीय सीमा से 20 किलोमीटर दूर समुद्र के बीच जलडमरूमध्य में स्थित है. यह द्वीप रामेश्वरम से आगे और श्रीलंका के मध्य स्थित है. 1974 में इंदिरा गांधी सरकार ने इसे श्रीलंका को सौंप दिया था. जो एक बड़ी अदूरदर्शिता थी. क्योंकि यह टापू भारत के लिए सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हो सकता था. जिस प्रकार से चीन समुद्री क्षेत्रों में अपनी पहुंच बढ़ा रहा है. उस पर निगरानी रखने के लिए भारतीय नेवी कच्चातिवु द्वीप को अपना ठिकाना बना सकती थी.
नेहरु सरकार ने कोको द्वीप पर दावा छोड़ा
अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद नेहरू सरकार ने म्यांमार के साथ कोको द्वीप से भी अपना दावा छोड़ दिया. कोको द्वीप अंडमान-निकोबार द्वीप का हिस्सा था. ब्रिटिश सरकार भारतीय क्रांतिकारियों को सजा देने के लिए अंडमान द्वीप भेजती थी, कैदियों की सब्जी उगाने का काम कोको द्वीप पर ही किया जाता था. हालांकि नेहरू सरकार ने इस द्वीप पर ध्यान नहीं दिया, जिसके बाद यह धीरे-धीरे यह म्यांमार के कब्जे में चला गया.
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार एक तथ्य और भी है कि लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाहर लाल नेहरू के सामने कोको द्वीप को लेकर त्रिपक्षीय समझौते का प्रस्ताव रखा था. जिसके बाद नेहरू ने 1950 में कोको द्वीप समूह बर्मा (म्यांमार) को दे दिया था. बाद में बर्मा ने इसे चीन को दे दिया. चीन ने अब कोको द्वीप को अपना सैन्य ठिकाना बना लिया है.