Madam Bhikaji Cama; भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में उतनी ख्याति मैडम भीकाजी कामा को नहीं मिली, जितना अन्य क्रांतिकारियों को प्राप्त हुई. भीकाजी कामा हमारे देश की एक ऐसी महिला शख्सियत थीं, जिन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा कालखंड विदेश में रहकर…वहां रहने वाले भारतीय के मन में देश भक्ति की अलख जगाई. साथ ही पहली बार भारत का तिरंगा विदेश में फहराया. आज 24 सितंबर को मैडम भीकाजी कामा की 163वीं जयंती है. लेकिन देश में ऐसे कम लोग ही हैं जो उनके प्रखर राष्ट्रवादी व्यक्तित्व से परिचित होंगे.
पहली बार फहराया तिरंगा
मैडम भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर, 1861 को बॉम्बे (अब मुंबई) में हुआ था. संपन्न परिवार में जन्म लेने के चलते उनके घर में राजनीति शख्सियतों का आना-जाना लगा रहता था. ऐसे में उनका भी रुझान सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों में बढ़ता चला गया. 1861 के समय जब देश तमाम विषमताओं से गुजर रहा था, तब उन्होंने महिलाओं के अधिकारों की आवाज उठाई, और फिर यहीं से वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़ीं. उन्होंने अपने जीवन काल का एक लंबा समय विदेश में बिताए. इसी दौरान उन्होंने 22 अगस्त, 1907 को जर्मनी के स्टटगार्ट में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस सम्मेलन में पहली बार भारतीय ध्वज तिरंगा को पहराया. तब वह ध्वज हरा, केसरिया, और लाल रंग की धारियों को मिलाकर बना था. जिस पर ‘वंदे मातरम’ भी लिखा हुआ था.
प्रसिद्ध वकील रुस्तमजी कामा से हुआ विवाह
भीकाजी पटेल का जन्म बॉम्बे के एक धनवान पारसी परिवार में हुआ था. बॉम्बे में पढ़ाई करने के दौरान ही वह राष्ट्रवादी आंदोलन से काफी प्रभावित हुईं. छात्र जीवन से ही उनके मन में राष्ट्रवादी विचारों ने जन्म लिया जो, जीवन के अंतिम समय तक उनके सांसों में बसे रहे. 1885 में 24 वर्ष की आयु में तब के प्रसिद्ध वकील रुस्तमजी कामा से उनका विवाह हुआ. लेकिन सामाजिक और राजनीतिक जीवन के चलते वैवाहिक जीवन में समस्याएं आईं. जिसके चलते उन्होंने अलग रहने का फैसला किया. इस दौरान उनका स्वास्थ्य भी कुछ ठीक नहीं था. जिसके चलते वह लंदन चली गईं.
लंदन में राष्ट्रवादी साहित्य का किया प्रकाशन
लंदन पहुंचीं भीकाजी कामा ने प्रकाशन का कार्य प्रारंभ किया. लंदन में रहने के दौरान उन्होंने आजादी के आंदोलन को तेज करने के लिए राष्ट्रवादी साहित्यों का प्रकाशन किया. इसी दौरान उन्होंने लंदन में रह रहे भारतीय को वह अपने देश की स्वतंत्रता के प्रति जागरूक करतीं. धीरे-धीरे उन्होंने बड़ी संख्या में भारतीयों को अपने साथ जोड़ लिया. लेकिन इसकी भनक अंग्रेजों को लग गई. अंग्रेज भीकाजी कामा को गिरफ्तार करने की योजना बना रहे थे, तभी वह लंदन छोड़कर फ्रांस चली गईं.
वीर सावरकर पर लगे आरोप अपने ऊपर लिए, पुत्र के समान की सेवा
लंदन से फ्रांस पहुंचीं भीकाजी कामा ने अपने राष्ट्रवादी साहित्य के प्रकाशन का काम जारी रखा. उन्होंने फ्रांस में ‘वन्देमातरम’ और ‘तलवार’ पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया. इसी बीच उन्होंने वीर सावरकर द्वारा लिखा पुस्तक ‘1857 का समर ग्रंथ’ फ्रेंच भाषा में प्रकाशित किया. इधर भीकाजी कामा भारत में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बैन किए गए साहित्य को फ्रांस में छापकर भारत भेज रहीं थीं. उधर भारत में वीर सावरकर अंग्रेजी हुकूमक की जड़े हिलाने की तैयारी में लगे हुए थे. इसी बीच वीर सावरकर का स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगा.
वीर सावरकर का स्वास्थ्य ठीक ना होने की जानकारी मैडम भीकाजी कामा को हुई. तो उन्होंने वीर सावरकर को फ्रांस बुला लिया. यहां उनका उपचार कराया और मां की तरह देखभाल की. जब वीर सावरकर का स्वास्थ्य ठीक हुआ, तो वह क्रांतिकारियों गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए लंदन जा रहे थे. फिर यहां से उन्हें भारत जाना था. इसी बीच उन्हें गैर कानूनी तरीके से ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार करवा लिया. दरअसल, नासिक में अंग्रेज अफसर जैक्सन की हत्या कर दी गई थी. इस हत्या की साजिश रचने और पिस्तौल उपलब्ध करवाने के आरोप सावरकरजी पर ही लगे थे. जिसके चलते उनकी गिरफ्तारी हुई.
भीकाजी कामा को जब जानकारी मिली कि अंग्रेज वीर सावरकर को गिरफ्तार कर भारत ले जा रहे हैं, तभी वह बंदरगाह पहुंचीं. लेकिन, तबतक जहाज भारत के लिए रवाना हो चुका था. उन्होंने वीर सावरकर की अवैध गिरफ्तारी की सूचना खूब प्रकाशित की. जिसके चलते ब्रिटिश हुकूमत की दुनिया भर में खूब किरकिरी हुई.
वीर सावरकर को अंग्रेज अपने षडयंत्र में न फंसा पाए, इसको लेकर उन्होंने फ्रांस से ब्रिटिश राजदूत को पत्र लिखकर कहा कि अफसर जैक्सन की हत्या के लिए पिस्तौल उन्होंने भेजी थी. सावरकर को इस मामले में झूठा फंसाया जा रहा है. लेकिन, अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी बात नहीं मानी और वीर सावरकर को कालापानी की सजा सुना दी.
बाद में ब्रिटिश हुकूमत ने फ्रांस सरकार से भीकाजी कामा को सौंपने की गुजारिश की. लेकिन फ्रांस की सरकार ने उन्हें सौंपने से मनाकर दिया. जिसके बाद अंग्रेजों ने मैडम भीकाजी कामा की भारत में मौजूद संपत्तियों को अपने कब्जे में ले लिया. ब्रिटिश हुकूमत के दबाव के चलते उन्हें कई देशों में शरण लेनी पड़ी. हालांकि, वृद्धावस्था के दौरान वह अपनी जन्मभूमि बॉम्बे पहुंची और यहीं पर उनकी 13 अगस्त 1936 को मृत्यु हो गई.
भारत की स्वतंत्रता, क्रांतिकारियों की मदद और राष्ट्रवादी साहित्यों के प्रकाशन में अपना जीवन खपाने वाली मैडम भीकाजी कामा का पूरा जीवन संघर्ष और गुमनामी में बीता. लेकिन आज उनके जैसे अनेक क्रांतिकारियों के बलिदान से ही हमारा भारत देश आजाद है और लगातार प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है.