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विश्व की जलवायु में हो रहा परिवर्तन, क्या आहार-व्यवहार और विचार संतुलन से बच पाएगा ‘हमारा पर्यावरण’

live up bureau by live up bureau
Jun 6, 2024, 05:14 pm IST
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Environment:- पर्यावरण में वैश्विक जलवायु के स्थितियों में निरंतर परिवर्तन हो रहा है। सभी देश इस मुद्दे के प्रति चिंतित हैं। हिमनदियाँ पिघल रही हैं, और नदियों में जलस्तर लगातार कम हो रहा है। कई नदियाँ लुप्त होने की कगार पर हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बढ़ते जलस्तर के कारण कई देशों में जलप्रलय की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। पृथ्वी गर्म हो रही है, तापमान में निरंतर वृद्धि हो रही है। इस तापमान बढ़ाव को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कहा जाता है। दुनिया भर के देश गैसों के बारे में बातचीत में उनके उत्सर्जन को कम करने के लिए सम्मेलनों से लक्ष्य निर्धारित कर रहे हैं।

कई सम्मेलनों, राष्ट्राध्यक्षों, और विदेश मंत्रियों के भाषणों से इन पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान नहीं निकल पा रहा है। पूरी दुनिया के वैज्ञानिक पर्यावरण के मुद्दों से चिंतित हैं, लेकिन चिंता के बावजूद कोई देश सकारात्मक कार्रवाई करने को तैयार नहीं है। दूसरी बात यह है कि राजनीति और पत्रकारिता से जुड़े लोग पर्यावरण को मात्र विकास से जोड़कर देख रहे हैं। पर्यावरण में सही प्रयास क्या है, जो करने योग्य है? अथवा पर्यावरण को सही बनाए रखने के लिए क्या नहीं करना चाहिए? इसके बारे में सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। राजनीतिक क्षेत्र से आने वाले लोगों को क्या चिंता है कि वे यह जानें कि पर्यावरण क्या है।

पर्यावरण की पवित्रता या अपवित्रता कैसे मापी जाती है, यह उनके सहायकों और अधिकारियों द्वारा कुछ सामग्री को एकत्रित करके भाषण के लिए उपलब्ध कराई जाती है। भाषण के माध्यम से पर्यावरण को कैसे सुधारा जा सकता है, भाषण से क्या बैठक या रैली के परिणाम हो सकते हैं, इसका विश्लेषण किया जाता है। पर्यावरणीय लाभ और हानियों का राजनीतिक दृष्टिकोण से कोई नया विचार नहीं है। 143 देशों में पर्यावरण दिवस का आयोजन किया गया। “पर्यावरण” शब्द का उत्पत्ति “एनवायरमेंट” शब्द से हुई, जो फ्रेंच भाषा का शब्द है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 में भारतीय संसद द्वारा अनुमोदित किया गया था, जिसका मुख्य उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन के निर्णयों को लागू करना था।

5 जून 1973 को, पर्यावरण संरक्षण के लिए विश्व स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता बढ़ाने के लिए इस दिन की घोषणा की गई थी। 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनीरियो में पृथ्वी सम्मेलन हुआ, जिसमें विश्व के 174 देशों ने भाग लिया। दूसरा सम्मेलन जोहान्सबर्ग में हुआ। भारतीय संविधान में राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में 48 अंक जोड़े गए और कहा गया कि राज्य पर्यावरण और वन्य जीवन की सुरक्षा के विकास के उपाय करेगा।

संविधान के मौलिक कर्तव्यों के आधार पर अनुच्छेद 51 AG में कहा गया है कि वनों, जीलों, नदियों, और वन्य जीवन की सुरक्षा, उनके विकास, और सभी जीवों के प्रति सहानुभूति हर नागरिक का कर्तव्य होगा। नीति निर्देशक सिद्धांतों की कार्यवाही सरकार का एक हिस्सा है। भारतीय धारणा है कि एक दैवीय तत्व होता है, जिसे हम सकारात्मक कहते हैं। वहीं, एक आसुरी तत्व भी होता है, जिसे हम नकारात्मक कहते हैं। जहां आसुरी शक्तियाँ होती हैं, वहां हमें सुरक्षा की आवश्यकता होती है।

सुरक्षा कवच ही पर्यावरण है। इसे हम पर्यावरण कहते हैं। दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ, ऋग्वेद में पर्यावरण को परिधि, आवरण, परिभू आदि नामों से संबोधित किया गया है। नारदीय सूक्त में कहा गया है कि सृष्टि के पूर्व न सत था, न असत था, न लोक था, न आकाश, न उससे परे कुछ था, तब किसने हमें ढंक रखा था। आवरण क्या जल था? पर्यावरण में केवल पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ ही आवश्यक नहीं हैं। हमारे विचार स्वच्छ हों, हमारा आहार ठीक हो, हमारा व्यवहार ठीक हो, हम अच्छा संगीत सुनें।

भयंकर आवाज वाले आधुनिक डीजे व्याकुलता पैदा करते हैं। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का शोरगुल, औद्योगिक कारखानों से निकलती घातक केमिकल, वाहनों की ध्वनि, धुआं, और उनमें जलता लाखों-करोड़ों लीटर डीजल-पेट्रोल हमारे मन और मस्तिष्क को ही कमजोर नहीं करता है, बल्कि अनेक जीवन निगल लेता है। यह आकाश में जाकर विचलन पैदा करता है और परम ऊर्जा को विनाश की ओर ले जाता है। परमाणु परीक्षण के विकिरण भी घातक होते हैं, लेकिन यह सामान्य जनता को नहीं पता होता।

पहाड़ों का रहना कितना आवश्यक है, यह इंजीनियर नहीं जानते। जीव-जंतु घबराए हुए हैं। पहाड़ कांप रहे हैं। नदियां लगता है कि विदाई की ओर हैं। अब उनका कल-कल निनाद घट रहा है। आकाश से वायु पैदा होती है। वायु हमारे पर्यावरण की प्राण ऊर्जा है। इसलिए इसे प्राण वायु कहते हैं। इसी से जीवन है। श्वास प्रतिश्वास यही है। जिस तरह पृथ्वी और आकाश के बीच वायु का संचरण होता है, ठीक उसी तरह हमारे शरीर के भीतर भी प्राण ऊर्जा है।

शरीर विज्ञानी इसे ही ऑक्सीजन कहते हैं। जब शरीर में प्राण वायु घटने लगती है, व्यक्ति थोड़ा मृत्यु की ओर बढ़ने लगता है। प्राण वायु समाप्त होते ही मृत्यु घटित हो जाती है। पृथ्वी और आकाश के बीच की प्राणवायु प्रदूषित हुई है। ग्रहों के बीच अंतरिक्ष से उत्पन्न होने वाला अनहद नाद डगमगा रहा है। लगता है मनुष्य की अभीप्साओं के कारण धरती की गंगा दुखी हैं। उदास है। प्रदूषित है। कचरा युक्त है। सौंदर्य विहीन होने की ओर अग्रसर है।

इस तरह आकाश में स्थित आकाशगंगा भी व्यथित और उदास है। कारण दुनिया भर में प्रकृति के विरुद्ध कार्रवाई जारी है। वनों को काटा जा रहा है। पहाड़ों को डायनामाइट से तोड़ने की दशकों पुरानी तकनीक जारी है। मछलियों और जलीय जीवों के जीवित रहने का अधिकार आधुनिक विज्ञान और मनुष्य छीन रहे हैं। कछुए खाए जा रहे हैं। गौवंश अपने जीवन को बचाने के लिए में संघर्षरत हैं। बैल विदाई की ओर हैं। कीट-पतंगे आधुनिक कीटनाशकों से निर्वाण को प्राप्त हो रहे हैं।

गिद्ध अब दिखें तो शोध का विषय हो गए हैं कि क्यों दिखाई पड़े। आंगन की गौरैया परम तत्व से मिलकर विलीन होने वाली है। वह अब आंगन में स्नान करने और अपने गीत सुनाने नहीं आती। कोयल, पपीहा, कौवा के लिए अब देश हुआ विराना की स्थिति है सभी पक्षी उदास हैं । अब मोर मयूर भी कम हो रहे हैं उनके प्रति आदर भाव निरंतर घट रहा है वे अब सावन में भी कम दर्शन देते हैं। मौलिक कर्तव्य का हिस्सा समाज की जिम्मेदारी में आता है।

सरकार और नागरिक दोनों ने पर्यावरण जैसे गंभीर विषय से अपने को मजबूती से सम्बद्ध नहीं किया। विकास की बात पर जनता आकर्षित होती हैं। विचार नहीं करते कि हमारी प्राकृतिक संपदा, नदियां पहाड़ नैसर्गिक वन-वनस्पतियां नष्ट होने के क्या नुकसान है। नदियों पर बने बड़े बांधों पुलों का निर्माण हमें लाभ कम, नुकसान अधिक देता है। जिनके लिए बांध-पुल बनाते हैं उन्हें ही विस्थापित होना खतरनाक होता है। विस्थापित जनों की संस्कृति नष्ट हो जाती है।

भूगोल निरंतर परिवर्तित हो रहा है। जीवनदायी वनस्पतियाँ अपनी अस्तित्व को खो रही हैं। हमें ध्यान में लाना होगा कि विनाशकारी विकास आपदाओं की ओर अग्रसर है। बाढ़, सूखा, भूमि की बंजरता, रेगिस्तानीकरण, पहाड़ों का पतन, बादलों का फटना, जिसके साथ नगरों का बहना, जनधन की हानियां ये सभी बड़े पैमाने पर हो रहे हैं। पानी की कमी लगातार बढ़ रही है। भारत के कई बड़े नगरों में जल संकट मुख्य मुद्दा बन गया है। अब गहराई की कम सिंचाई के बोरिंग नल बुरी तरह फेल हो रहे हैं। इस प्रकार, पर्यावरण दिवस को अनदेखा कर देना हम सभी के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।

यह भी पढ़ें:- उत्तर प्रदेश से 7 महिलाएं ‘संसद’ में करेंगी नेतृत्व, 80 महिला उम्मीदवारों ने लड़ा था चुनाव!

Tags: EnvironmentPeopleSpecial Story
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