फकीरों की जिद्द के आगे बाबर विवश हो गया था।
लखनऊ- “श्रीराम जन्मभूमि का रोमांचकारी इतिहास” के लेखक पंडित रामगोपाल पाण्डेय शारद लिखते हैं कि उसने अपने सेनापति मीर बाकी को आदेश दे दिया कि फरिश्तों के उतरने की जगह (श्रीराम जन्मभूमि) पर स्थित मंदिर को ताेड़कर मस्जिद तामीर किया जाए। गुप्त काल में हूण और किरातों के हमलों से नष्ट हुए राममंदिर को विक्रमादित्य ने पुनर्निर्माण कराया था। जिसे बाबर के आदेश के बाद तोड़ने का सिलसिला शुरू हो गया। लेकिन कैसा था वह राममंदिर जिसे बाबर ने तोड़ा, जिसका निर्माण महाराजा विक्रमादित्य ने कराया था।
1932 में प्रकाशित पुस्तक अयोध्या का प्राचीन इतिहास के लेखक लाला सीताराम लिखते हैं कि हिंदुस्थान का बादशाह बनने का लालच और फकीरों की दुआ के लिए बाबर ने जिस मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया। वह उस समय का दुनिया का सबसे सुंदर और भव्य मंदिर था। जिसमें सात शिखर थे, जिन पर भव्य कलश बना हुआ था। इसके अलावा एक सर्वोच्च शिखर था। आज के मनकापुर से श्रीराम जन्मस्थान का मंदिर दिखाई पड़ता था। उस समय दुनिया में सिर्फ चार ही मंदिर ऐसे थे जिनको सर्वश्रेष्ठ मंदिर माना जाता था, जिसमें एक अयोध्या का श्रीरामंदिर हुआ करता था। इस मंदिर की पताका ही नहीं, इसके सातों शिखरों के कलश वर्तमान मनकापुर से दर्शन किए जा सकते थे।
वह लिखते हैं कि मंदिर के चारों तरफ छह सौ एकड़ का विस्तृत मैदान हुआ करता, जिसमें सुंदर उद्यान और कुंंज सुंदरता में बेजोड़ थे। उद्यान के बीचोबीच में दो सुंदर पक्के कुंए थे जो मंदिर के गोपुर के सामने अग्नि कोण पर स्थित थे। बिलकुल गर्भगृह के सामने का कूप नवकोण का बनाया गया था, जिसे कंदर्प कोण कहा जाता है। इस कूप से स्नान करके राजा ययाति ने यौवन प्राप्त किया था। पूर्व और उत्तर की दिशा में स्थित कूप को दशरथ ने कौशल्या के लिए बनवाया था। इसे ज्ञानकूप अथवा सीताकूप भी कहा जाता था। यहां के जल से भगवान शिव की आराधना की जाती था। इसके अलावा वेदपाठी ब्राह्मण यहीं पर स्नान करते थे। इस कूप को ही सीता जी को जनकपुर से आने के बाद मुंह दिखाई में दिया गया था। राजमहल के भीतर सभी का भोजन इसी ज्ञानकूप के जल से बनता था। परंपरा अनुसार विवाह आदि या शुभकार्यो में माताएं इसी कूप में अपना पैर लटका कर बैठती थी, जो उस समय की अवध की परंपरा थी।
बजती रहती थी रागभैरवी और शहनाई
इसी पुस्तक में अयोध्या के भव्य राममंदिर का वर्णन करते हुए लाला सीताराम लिखते हैं कि विक्रमादित्य ने जिस मंदिर का निर्माण कराया वहां पूर्वी द्वार पर भव्य गोहार बनाया गया था। गोहार एक प्रकार का स्थान था जहां पर शहनाई वादक बैठते थे। नियमित सुबह शहनाई की धुन पर राग भैरवी प्रारंभ होता था और दिन के अलग-अलग पहर पर संगीत के अनुसार विभिन्न राग की धुनें बजती थीं। इसी स्थान पर संध्याकाल में श्याम कल्याण और गौरी राग की धुन भी छिड़ती थी। मंदिर में दस लाख रुपए वार्षिक चढ़ावा आता था जिससे मंदिर के उत्सव संबंधित समस्त कार्य बड़े ही सुव्यवस्थित तरीके से किए जाते थे।
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इस मंदिर में ब्राह्मणों, पुजारियों और वेदपाठियों के लिए विशेष व्यवस्था चली आ रही थी। बड़े विद्वान, वेदपाठी मंगला आरती में वेदमंत्रों, श्रीसूक्त, पुरुष सुक्त आदि का सस्वर पाठ किया करते थे। मंदिर के पश्चिम दिशा की तरफ अतिथियों के रुकने के लिए भवन बनाया गया था। इसके अलावा इस मंदिर में वेदपाठशाला, आयुर्वेद प्रशिक्षण, अष्टांग योग प्रशिक्षण आदि की व्यवस्था थी। वेदपाठी यहां पर चारों वेद पुराण कंठस्थ कर लेते थे और देश-देशांतर में जाकर सनातन की विजय पताका स्थापित करते थे।
राजा व्रिकमादित्य द्वारा निर्मित यह मंदिर 84 प्रस्तर खंभों पर बना हुआ था। जिसे आतताई बाबर और उसकी सेना ने तोड़कर नष्ट कर दिया। भगवान श्रीराम की जन्मभूमि पर स्थित मंदिर का स्वरुप कितना भव्य था, यह मानचित्र धर्मग्रंथों में वर्णित उसके स्वरुप के आधार पर बताया जाता है। लेखक और प्रसिद्ध पत्रकार फजले गुरफान अपनी पुस्तक ‘सबके राम’ में लिखते हैं कि इतिहास के कालक्रम में अयोध्या उत्थान-पतन के अनेक दौर से गुजरी है। उजड़ने और बसने के इस क्रम में मंदिरों, भवनों और गढ़ियों का निर्माण होता रहा है। ये सभी आज धरोहर के रुप में विद्यमान है और लोग इन दर्शनीय स्थलों पर अपनी आस्था और विश्वास के साथ दर्शन के लिए आते हैं। पौराणिक काल की बात छोड़ दें, तो काल गणना और समय काल के बारे में आकलन शुरू हुआ है तब से पुरानी सभ्यताओं के देशकाल के बारे में जानकारी जुटा रहे हैं। इन्हीं से पता चलता है कि 1528 से लेकर 2020 तक के बीच बाबरी ढांचे को तोड़कर राममंदिर बनाए जाने की मांग बहुत पुरानी है।