कारगिल युद्ध – 1999 के नायकों में कैप्टन मनोज कुमार पांडे का नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है. उनकी वीरता, नेतृत्व और बलिदान ने खालूबार रिज पर भारत की जीत सुनिश्चित की, जिसके लिए उन्हें देश का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार, परमवीर चक्र, मरणोपरांत प्रदान किया गया. आज, उनके बलिदान को याद करते हुए, हम उस शौर्य गाथा को सलाम करते हैं, जिसने भारत की संप्रभुता को अक्षुण्ण रखा.
खालूबार रिज: कारगिल का सबसे कठिन मोर्चा
कारगिल युद्ध के दौरान पाकिस्तानी घुसपैठियों ने जम्मू-कश्मीर के बटालिक सेक्टर में खालूबार-पद्मा गो रिज लाइन पर कब्जा कर लिया था. यह रिज लाइन, जिसमें पॉइंट 4812, खालूबार, पॉइंट 5287, पॉइंट 5000 और स्टेंग्बा डॉग हिल शामिल थे, ये रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण थी. 16,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित पॉइंट 5287 और अन्य चोटियां बटालिक क्षेत्र पर हावी थीं. दुश्मन की मजबूत स्थिति के कारण इन पर कब्जा करना बेहद चुनौतीपूर्ण था. इस कठिन मिशन को पूरा करने की जिम्मेदारी 1/11 गोरखा राइफल्स और 22 ग्रेनेडियर्स को सौंपी गई, जो 70 इन्फैंट्री ब्रिगेड और 3 इन्फैंट्री डिवीजन के तहत ऑपरेशन विजय का हिस्सा थे.
कैप्टन मनोज पांडे को मिल फतह करने का नेतृत्व
25 जून 1975 को जन्मे कैप्टन मनोज कुमार पांडे 1997 में भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून से 1/11 गोरखा राइफल्स में कमीशन प्राप्त कर चुके थे. जून-जुलाई 1999 में उनकी यूनिट को बटालिक सेक्टर में तैनात किया गया. इससे पहले, उन्होंने जुबार टॉप पर कब्जा कर पहली चौकी स्थापित की थी, जिसने उनकी वीरता का परिचय दिया. खालूबार रिज पर हमले के लिए उनकी ‘बी’ कंपनी को चुना गया, जिसमें वे प्लाटून नंबर 5 की कमान संभाल रहे थे.
2-3 जुलाई 1999 की रात, कैप्टन पांडे 19,700 फीट की ऊंचाई पर स्थित ‘पहलवान चौकी’ की ओर बढ़े. ‘जय महाकाली, आयो गोरखाली’ के गगनभेदी नारे के साथ उनकी टुकड़ी ने दुश्मन की भारी गोलाबारी का सामना किया. तीव्र हमले के बीच, उन्होंने अपनी टुकड़ी को सुरक्षित स्थिति में ले जाकर रणनीति बनाई. एक सेक्शन को दाईं ओर और खुद बाईं ओर से दुश्मन के बंकरों पर हमला करने का नेतृत्व किया.
हमले के दौरान उनके कंधे और पैरों में गोलियां लगीं
कैप्टन पांडे ने निडरता से दो दुश्मन बंकरों को नष्ट किया. तीसरे बंकर पर हमले के दौरान उनके कंधे और पैरों में गोलियां लगीं. गंभीर चोटों के बावजूद, उन्होंने चौथे बंकर पर ग्रेनेड से हमला कर उसे ध्वस्त किया. उनकी कमान में सैनिकों ने छह बंकरों पर कब्जा किया, ग्यारह दुश्मन सैनिकों को मार गिराया और एक एयर डिफेंस गन सहित हथियारों का भंडार हासिल किया. इस ऑपरेशन ने खालूबार रिज पर भारत का नियंत्रण स्थापित किया.
लेकिन इस जीत की कीमत भारी थी. कैप्टन पांडे और 1/11 गोरखा राइफल्स के छह अन्य जवान – हवलदार झनक बहादुर राय, हवलदार बीबी दीवान, हवलदार गंगा राम राय, राइफलमैन कर्ण बहादुर लिम्बू, राइफलमैन कालू राम राय और राइफलमैन अरुण कुमार राय बलिदान हो गए. 22 ग्रेनेडियर्स के 15 बहादुरों ने भी इस लड़ाई में बलिदान दिया, जिनमें गार्ड हसन मुहम्मद, हवलदार अमरुद्दीन, हवलदार राज कुमार, हवलदार लेख राम, नायक अहमद अली मेवाती, नायक आबिद खान, नायक रियासत अली, नायक नीरज कुमार, गार्ड जाकिर हुसैन, गार्ड रिजवान त्यागी, गार्ड जुबैर अहमद, गार्ड मुहम्मद इश्तियाक खान, गार्ड अरविंद्र सिंह, गार्ड जेपी सिंह यादव और गार्ड हसन अली खान शामिल थे.
मरणोपरांत किया गया परमवीर चक्र: सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित
कैप्टन मनोज पांडे के अद्वितीय साहस, नेतृत्व और कर्तव्य के प्रति समर्पण के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. उनकी वीरता ने न केवल खालूबार रिज पर विजय सुनिश्चित की, बल्कि कारगिल युद्ध में भारत की जीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनकी प्रसिद्ध उक्ति, “अगर मेरे खून को साबित करने से पहले मौत आएगी, तो मैं कसम खाता हूं कि मैं मौत को भी मार डालूंगा,” उनके दृढ़ संकल्प को दर्शाती है.
खालूबार रिज ऑपरेशन का महत्व
खालूबार-पद्मा गो रिज लाइन पर कब्जा बटालिक सेक्टर में भारत की रणनीतिक जीत का आधार बना. जंक लांगपा गलियारे के माध्यम से चोटियों को एक-एक कर सुरक्षित करने की योजना ने दुश्मन की मजबूत रक्षा को तोड़ा. खालूबार रिज लाइन, जो बटालिक क्षेत्र पर हावी थी, पर नियंत्रण ने पाकिस्तानी घुसपैठियों को पीछे हटने के लिए मजबूर किया. 1/11 गोरखा राइफल्स और 22 ग्रेनेडियर्स की संयुक्त कार्रवाई ने इस ऑपरेशन को सफल बनाया.
पाकिस्तान को मिट्टी में मिलाने का वक्त आ गया है – मनोज पांडे के पिता
कैप्टन पांडे का बलिदान आज भी हर भारतीय को प्रेरित करता है. उनके बलिदान के बाद आकाशवाणी समाचार ने सशस्त्र बलों को श्रद्धांजलि देने वाली श्रृंखला में उन्हें याद किया. उनके पिता ने एक साक्षात्कार में कहा, पाकिस्तान को मिट्टी में मिलाने का वक्त आ गया है, जो उनके बलिदान की गहराई और देशभक्ति को दर्शाता है.
कैप्टन मनोज कुमार पांडे और उनके साथियों का बलिदान कारगिल युद्ध की अमर गाथा का हिस्सा है. उनका शौर्य, ‘जय महाकाली, आयो गोरखाली’ का उद्घोष और खालूबार रिज पर तिरंगे की विजय हमें हमेशा गर्व से भर देती है.
”सीतापुर का वह वीर सपूत जिसने अपने शब्दों को सच कर दिखाया”
कैप्टन मनोज कुमार पांडे का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के कमलापुर तहसील स्थित रुधा गांव में हुआ था. बचपन से ही साहसी और मेधावी रहे मनोज ने अपनी वीरता से देश का नाम रोशन किया और सर्वोच्च सैन्य सम्मान प्राप्त कर अपने शब्दों को अमर कर दिया. उनके परिवार में पिता गोपी चंद पांडे और माता मोहिनी पांडे और दो भाई मोहित और मनमोहन तथा एक बहन प्रतिभा हैं.
प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ के हेराल्ड मॉन्टेसरी और रानी लक्ष्मीबाई स्कूल में प्राप्त करने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश सैनिक स्कूल, लखनऊ में दाखिला लिया. यहीं से सेना में जाने का उनका सपना और भी पक्का हुआ.
खेलों में विशेष रुचि रखने वाले मनोज बॉक्सिंग और बॉडीबिल्डिंग में भी निपुण थे. वर्ष 1996 में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) के 90वें कोर्स से पास आउट होने के बाद उन्होंने IMA देहरादून से प्रशिक्षण प्राप्त किया और 7 जून 1997 को मात्र 22 वर्ष की आयु में द्वितीय लेफ्टिनेंट के रूप में सेना में कमीशन प्राप्त किया. उन्हें गोरखा राइफल्स (1/11 जीआर बटालियन) में नियुक्त किया गया — एक ऐसी रेजीमेंट जो साहस और बलिदान के लिए जानी जाती है.
SSB साक्षात्कार के दौरान जब उनसे पूछा गया कि वो सेना में क्यों शामिल होना चाहते हैं, तो उनका सीधा उत्तर था— “मैं परमवीर चक्र जीतना चाहता हूँ.” और उन्होंने सचमुच यह कर दिखाया.
कमीशन के बाद उनकी पहली तैनाती कश्मीर घाटी में हुई, जिसके बाद उन्हें सियाचिन ग्लेशियर भेजा गया. वहीं से उन्हें बटालिक सेक्टर में भेजा गया, जहां पाकिस्तान द्वारा की गई पहली घुसपैठ का भारतीय सेना ने जवाब देने की रणनीति बनाई थी.
कैप्टन मनोज ने वीरता, समर्पण और अदम्य साहस के साथ दुश्मनों का सामना किया और वीरगति को प्राप्त हुए. लेकिन उन्होंने पीछे वह कहानी छोड़ दी जो आज भी हर भारतीय के हृदय को गर्व और श्रद्धा से भर देती है.
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