देश में आपातकाल लागू हुए 50 साल हो गए हैं. 25 June 1975 को इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए देश में आपातकाल लागू करने की घोषणा की थी. जो 21 March 1977 तक चला. इस अवधि के दौरान तमाम राजनीतिक व सामाजिक संगठन के कार्यकर्ताओं को जेल में डाला गया. उन्हें अनेकों-अनेक यातनाएं दी गईं. लेकिन फिर भी इमरजेंसी का विरोध करने वालों का हौसला कम नहीं हुआ. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले उस दौर में लोगों साथ हुई क्रूरता और अमानवीय घटना का जिक्र किया. साथ ही उन्होंने आपातकाल के विरुद्ध संघ के कार्यकर्ताओं द्वारा चलाए गए आंदोलन पर भी अपनी बात रखी.
सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि बालासाहेब देवरस जी ने आपातकाल को लेकर बहुत महत्वपूर्ण सार्वजनिक वक्तव्य दिया था. उन्होंने कहा था कि जो हो गया है वो हो गया है. उसको भूल जाओ, उसको क्षमा करो. लेकिन देश के इतिहास में काला अध्याय ( आपातकाल) के दौरान घोर दमन और अत्याचार हुए. वह इतिहास के पन्नों पर है. कई पुस्तकें इस विषय में आई हैं. व्यक्तिगत तौर पर भी कई लोगों ने लिखा है और संगठनों ने भी इस प्रकार के साहित्य छापे हैं. इसलिए मैं नहीं भी बताऊंगा तो भी वह है ही.
इसलिए बालासाहेब देवरसजी ने जो अपेक्षा की थी उसको ध्यान में रखकर. मैं थोड़ा दो-चार बातें इस संदर्भ में बताऊंगा. क्रूरता और अमानवीयता बहुत व्यापक प्रभाव में कई जगह पर हुई. किस प्रकार अपने देश की व्यवस्था, पुलिस की और सरकारी प्रशासन की व्यवस्था इस प्रकार की बरबर्ता दिखा सकेत हैं, इसका एक अनुभव आपातकाल के दौरान हुआ.
आपातकाल में पुलिस द्वारा लोगों साथ किए गए अमानवीय व्यवहार को याद करते हुए दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि दोनों हाथ बांधकर, ऊपर से उनको खींचना, व्यक्ति जमीन से ऐसे ऊपर जाता था जैसे फांसी होती है. उनकी पीठ और पैर पर लाठी से मारना, उस समय जो क्रूरता हुई तीन प्रकार की हुई. एक है जो अरेस्ट हुए, उनके साथ लॉकअप में क्रूरता हुई. बहुत सारे व्यापक परिणाम में जो हुआ वो पुलिस लॉकअप में हुआ जेल में भेजने से पहले. पुलिस लॉकअप में जो हुआ उसकी हिंसा के प्रकार हैं. उस समय आंध्रप्रदेश के कार्यकर्ता आंजनेय येलू को उसके शरीर पर मोमबत्ती से करीब 100 जगह पर जलाया. उनसे कुछ मुंह से कहलवाने के लिए, बुलवाने के लिए.
किसी को नारियल के अंदर कीड़े रखकर नाभि के ऊपर बांध दिया. जैसे मैंने कहा कि पुलिस में ऐरोप्लेन कहते हैं, गोली कहते हैं, चपाती कहते हैं ये सब अलग-अलग प्रकार के हिंसा और टार्चर के प्रकार हैं, सीधे बैठाकर उसके ऊपर रोलिंग करो, इलेक्ट्रिक शॉक दो, हाथ की उंगलियों में पिन चुभा दो. यह सब भयानक किया गया. जब एक को यह सब किया जा रहा है, तो वहां बैठे दूसरे व्यक्ति को लगेगा की यही सब मेरे साथ होने वाला है. अगल नंबर मेरा है. जो मेरे सामने भी हुआ है.
बहुत लोग जो जेल में आए, उस समय जेल के अंदर कई लोगों के आने के बाद लॉकअप में तीन दिन, चार दिन जिस प्रकार उनके साथ अमानवीय अत्याचार हुए. वो उस स्थिति में जेल में आने के बाद उनको 10 दिन, 15 दिन मालिश करना यह सब मैंने भी किया. कुछ लोग जीवन भर के लिए दिव्यांग हो गए. कुछ लोगों के जीवन भर कोई न कोई व्याधि हो गई. कुछ लोगों की जीवन भर के लिए आंखे चली गईं. यह हुआ है.
आपातकाल के दौरान सत्याग्रहियों को दी गई अमानवीय यातनाएं
सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने आगे कहा कि बेंगलुरु की एक घटना जानता हूं. ओम प्रकाश कोहली जी दिल्ली में थे, जो गवर्नर भी रहे. राज्यसभा सदस्य रहे. विद्यार्थी परिषद के अखिल भारतीय अध्यक्ष भी रहे. दिल्ली की तिहाड़ जेल में सब जानते हैं कि ओम प्रकाश कोहली जी चलने में थोड़ा दिव्यांग थे. उनको पुलिस ने लॉकअप में लात मारी. उनके साथ अपमान का व्यवहार किया गया. वह कॉलेज के प्रोफेसर थे, खड़ा होना मुश्किल था. ऐसे व्यक्ति के साथ ऐसा व्यवहार किया गया. ऐसा देशभर में हुआ.
बेंगलुरु में गायत्री नाम की एक महिला थीं, उन्होंने सत्याग्रह किया. सत्याग्रह के बाद उनको पुलिस ने अरेस्ट किया. वह उस समय गर्ववती थीं. लॉकअप में पुलिस जब लेकर गई तो उन्हें प्रसव वेदना हुई तो उन्हें हॉस्पिटल ले गए. हॉस्पिटल में उनको पलंग पर लिटाया, जब डिलिवरी हुई उस समय उनके दोनों पैरों को जंजीर से बांधा हुआ था. गर्भवती महिला कहीं भाग जाएगी, ऐसा तो नहीं हो सकता. डिलीवरी हो गई तो उनको बांधकर रखने की क्या जरूरत थी?
उत्तर भारत में पकड़-पकड़कर व्यापक स्तर पर नसबंसी हुईं. उस समय सरकार में प्रशासन को चलाने वाली चौकड़ी थी, उसमें जो भी लोग थे, उन्होंने नसबंदी के कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए देश के अंदर जनसंख्या नियंत्रण करने के लिए उन्होंने जिस प्रकार से आपातकाल का उपयोग किया, जबरदस्ती यह घोर अमानवीय और मानवाधिकार के विरुद्ध इतिहास के पन्नों पर हमेशा एक काला धब्बा है.
जेल के अंदर बाकी जो कैदी रहते हैं, क्रिमिनल केस में आए थे, उन लोगों को राजनीतिक कैदियों के खिलाफ उकसाकर उन लोगों के बीच झगड़ा करवाकर उनसे मारपीट करवाया. उनके हाथ में सब प्रकार की चीजें हैं, राजनीतिक कैदी निहत्थे थे. जेल के अंदर ऐसे जानबूछ कर करवाने का प्रयत्न किया. झगड़े हो गया, ऐसे जेल में लगभग 25 लोगों के हाथ-पैर की हड्डी टूट गई. महीनों तक उनको अस्पताल में रखना पड़ा.
सरकार्यवाह ने आगे बताया कि आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष के लिए पहले जो लोक संघर्ष समिति बनी उसके सचिव थे नाना जी देशमुख. नाना जी देशमुख की अगस्त 1975 में गिरफ्तारी हो गई. नानाजी देशमुख के बाद समिति के महासचिव बने रविंद्र वर्मा, उनकी भी गिरफ्तारी होने के बाद माननीय दत्तोपंत ठेंगडी जी समिति के सचिव बने. दत्तोपंत ठेंगडी आखिर तक भूमिगत रहे, उनको पुलिस पकड़ नहीं पाई. पुलिस को पता नहीं चलना, यात्रा करना, अलग नाम रखना, वेष बदलना यह सब हमने किया था उन दिनों में.
उन्होंने कहा कि भूमिगत आंदोलन के तरीके होते हैं, वह सब किए हैं. जैसे अभी प्रधानमंत्री जी के बारे में कहते हैं कि वह सरदार बनकर घूम रहे थे. ऐसे देशभर को लोग अलग-अलग वेष पहनकर जाते ही थे.
सरकार्यवाह ने कहा कि लोकतंत्र के प्रजातंत्र के अंतर्गत ही संघर्ष करना चाहिए. संविधानात्मक ठंग से ही करना चाहिए. बंदूक उठाकर क्रांति नहीं करनी है. शस्त्र उठाकर आपातकाल का विरोध करना यह गलत है. ऐसा समिति का स्पष्ट अभिप्राय था. लोगों को हिंसा के मार्ग पर नहीं लाना. यह स्पष्ट निर्देश था. सत्याग्रह 14 नवंबर से प्रारंभ करना यह तय था.
सत्याग्रह के लिए किसी जगह पर बस स्टैंड पर, रेलवे स्टैंड पर जितनी संख्या में हो सकते हैं, उतनी संख्या में लोग आना, आपातकाल के विरुद्ध में 2-4 नारे लगाना, पुलिस आएगी, पकड़कर ले जाएगी. यह तय था और यथासंभव साहित्य पर्चे लोगों को दे देना. क्योंकि साहित्य को बांटने का और कोई रास्ता नहीं था, खुलकर हम नहीं दे सकते थे, इसलिए सत्याग्रह के लिए जाते समय थैली में पर्चे रखो और उनको सभी को दे दो. यह सब सत्याग्रह के तरीके थे.
इस आपातकाल को जनता ने स्वीकार नहीं किया है. यह लोकतंत्र के विरुद्ध है. लोकतंत्र का दमन हो गया है. इसलिए इसके विरुद्ध आवाज उठाना, समाज मरा नहीं है, स्तब्ध नहीं है, ऐसा दिखाना यह बहुत बड़ा समिति का उद्देश्य था.
इमरजेंसी में संघ ने खड़ा किया पत्रकारों का नेटवर्क
दक्षिण भारत में लोक संघर्ष समिति को नेतृत्व दिया माननीय ओमेसे सादरी जी ने. उन्होंने साहित्य का नेतृत्व दिया. रात को प्रेस काम करना लेकिन आवाज नहीं आना. इसके लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी. दो पन्ने के, 4 पन्ने के पत्र-पत्रिकाएं छपवाना. देश के अन्य-अन्य भागों में क्या चल रहा है, इसके बारे में जानकारी इकट्ठा करना. जानकारी इकट्ठा करने करने के लिए कुछ फोन का उपयोग करना, भूमिगत अलग-अलग नाम से प्रवास करने वाले लोगों से लिखवाकर लाते थे. एक नेटवर्क शुरू किया था. इसके लिए ही कुछ कार्यकर्ता प्रवास करते थे. बाकी कोई उनके पास बैठक लेना, सत्याग्रह की तैयारी करना यह सब उनके पास काम नहीं थी. वो लोग एक तरह से अंडरग्राउंड पत्रकार जैसे काम करते थे. वह कार्यकर्ता थे. वो सभी पत्रकारिता क्षेत्र से नहीं थे. लेकिन न्यूज कलेक्ट करके उसको लिखना वो यह करते थे.
दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि लेखकों को जगह-जगह बुलाते थे. दो बार लेखक लोगों की कार्यशाला किया कर्नाटक में. उन दिनों मैं कर्नाटक में था, ऐसे देश के अन्य भागों में भी जरूर किए होंगे. कर्नाटक के 4 स्थान पर या महाराष्ट्र में, अलग अलग नाम से कई पत्रिकाएं छपती थीं. मराठी में, कन्नड़ में, तेलुगु में, हिंदी में.
कर्नाटक में कन्नड़ में तीन जगह पर तीन नाम से छपती थीं. दो प्रकार की छपना एक है प्रिटिंग प्रेस, वो आवाज करता है, इसलिए पुलिस पकड़ सकती है, इसलिए मशीन को हाथ से घुमा-घुमाकर छापना. रात-रात काम करना, एक हजार प्रति निकलती थी. रातभर काम करके. सुबह साढ़े तीन, चार बजे से 5 बजे के बीच सामान्यता घर के गेट के पास जहां लोग पेपर रखते थे, वहां प्रति डाल देना. एक बार चार लोग सिनेमा देखने गए, सभी जेब में पत्रिका रखकर गए. वहां ऊपर बालकनी सीट पर गए वहां से लोगों को पत्रिका बांटी.
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