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आपातकाल में क्रूरता की हदें पार: 86 लाख लोगों की जबरन नसबंदी, किशोरों और बुजुर्गों को भी नहीं छोड़ा, प्रदर्शन करने पर पुलिस सीधे चलाती थी गोली

आपातकाल के दौरान बड़ी संख्या में लोगों की जबरन नसबंदी कराई गई, जिसमें 16 साल के किशोरों से लेकर 70 साल के बुजुर्गों तक को भी नहीं छोड़ा गया. जबरन नसबंदी के बाद कई लोगों को टिटनेस हुआ और उनकी जान चली गई. विरोध करने वाले लोगों को जेल में डाल दिया गया. कई लोगों की गोलीबारी में मौत भी हुई. विपक्ष के नेताओं को पकड़-पकड़ कर जेल में डाल दिया गया, ताकि विरोध करने वाला कोई न बचे.

live up bureau by live up bureau
Jun 21, 2025, 04:56 pm IST
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25 जून 1975 को देश में लागू हुआ ‘आपातकाल’ भारत की राजनीति में एक काला अध्याय है. जब भी कभी इतिहास के पन्ने पलटे जाएंगे, तो आपातकाल के दौर में हुए अत्याचार आंखों के सामने कौंधने लगेंगे. जो उस दौर में लोगों ने सहा या फिर इस जमाने में सुना और पढ़ा. जनसंख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश, देश का सबसे बड़ा राज्य है, तो स्वाभाविक है कि आपातकाल के दौर (25 जून 1975 से-21 मार्च 1977) में यहां के लोगों ने सबसे ज्यादा अत्याचार सहा.

आपातकाल के दौरान बड़ी संख्या में लोगों की जबरन नसबंदी कराई गई, जिसमें 16 साल के किशोरों से लेकर 70 साल के बुजुर्गों तक को भी नहीं छोड़ा गया. जबरन नसबंदी के बाद कई लोगों को टिटनेस हुआ और उनकी जान चली गई. विरोध करने वाले लोगों को जेल में डाल दिया गया. कई लोगों की गोलीबारी में मौत भी हुई. विपक्ष के नेताओं को पकड़-पकड़ कर जेल में डाल दिया गया, ताकि विरोध करने वाला कोई न बचे.

86 लाख से अधिक लोगों की कराई गई जबरन नसबंदी

इमरजेंसी के दौरान लोगों को तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया. लेकिन उस दौरान सबसे ज्यादा परेशान करने वाली घटना थी लोगों की जबरन नसबंदी. आपातकाल के दौरान 86 लाख से अधिक लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई. इमरजेंसी के अकेले 1 साल में 60 लाख से अधिक लोगों की नसबंदी करा दी गई. इस मुहिम में लगे सरकारी तंत्र ने 16 साल के किशोर से लेकर 70 साल के बुजुर्ग तक को भी नहीं छोड़ा.

लोगों की जबरन नसबंदी कराने के लिए उन्हें घर, बस, रेलगाड़ी, कार्यालय आदि जगहों से उठा लिया जाता था और उनकी नसबंदी करा दी जाती थी. डॉक्टरों को ऑपरेशन करने का बड़ा लक्ष्य दिया गया था. इसलिए उन्हें नसबंदी ऑपरेशन करने की इतनी जल्दी रहती थी कि कई लोगों को टिटनेस हुआ. जिसके बाद उनकी जान चली गई.

लक्ष्य न पूरा होने पर रोक दी जाती थी सैलरी

तात्कालिक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संयज गांधी ने नसबंदी के लिए सरकारी कर्मचारियों को लगाया था. पहले लोगों को समझाकर व प्रलोभन देकर नसबंदी कराने क लिए राजी कराया जाता था. जब वह नहीं मानते थे, तो उनको पकड़कर जबरन नसबंदी कर दी जाती थी. संजय गांधी ने सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के सामने अधिक से अधिक लोगों की नसबंदी कराने का लक्ष्य रखा था. जो अधिकारी या कर्मचारी लक्ष्य नहीं पूरा कर पाता था, उनका वेतन रोक दिया जाता था. यही वजह है कि उस दौरान लक्ष्य पूरा करने के लिए पूरा सरकारी तंत्र येन-केन प्रकारेण लगा हुआ था.

इंदिरा गांधी के 20 व संजय गांधी के 5 सूत्रीय कार्यक्रम

आपातकाल के दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम निर्धारित किए थे. वहीं, संजय गांधी के 5 सूत्रीय कार्यक्रम अलग से निर्धारित थे. संजय गांधी ने 5 सूत्रीय कार्यक्रमों में नसबंदी भी शामिल थी. लेकिन जिस प्रकार से लोगों की बिना सहमति से उनको पकड़-पकड़कर नसबंदी कराई गई, इसकी खूब आलोचना हुई. जबरन नसबंदी के खिलाफ लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया, प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोलीबारी से कई लोगों की मौत भी हुई.

पुलिस की गोलीबारी से मुजफ्फरनगर में 40 लोगों की मौत

18 अक्तूबर 1976 को मुजफ्फरनगर के खालापार में लोग आपातकाल और जबरन नसबंदी को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. लेकिन इसी दौरान प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस प्रशासन ने फायरिंग कर दी. जिसमें 42 लोगों की जान चली गई. इन मारे गए लोगों की स्मृति में आज भी खालापार में शहीद चौक बना है, जहां लगे शिलापट्ट पर 25 मृतकों के नाम लिखे हैं.

सुल्तानपुर में विरोध कर रहे लोगों पर फायरिंग

सुल्तानपुर के निजामपुर गांव में 27 अगस्त 1976 को बड़ी संख्या में लोगों ने आपातकाल और जबरन की जा रही नसबंदी के खिलाफ आवाज उठाई. बड़ी संख्या में एकजुट लोगों ने आपातकाल का विरोध किया और सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी की. जिसके चलते पुलिस ने पहले लाठीचार्ज किया और फिर फायरिंग कर दी. इस घटना में गोली लगने से कई लोगों की मौत हुई, बड़ी संख्या में लोग घायल हुए, साथ ही पुलिस ने कई लोगों को जेल भी भेज दिया.

जेल में बंद लोगों को दी जाती थीं यातनाएं

इमरजेंसी का विरोध करने पर लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाता था. इसके चलते सबसे ज्यादा गिरफ्तारियां विपक्षी नेताओं की हुईं. जेल में बंद करने बाद लोगों को तरह-तरह की क्रूर यातनाएं भी दी जातीं थीं. आपातकाल का विरोध करने पर जेल गए मेरठ निवाली प्रदीप कंसल बताते हैं कि जेल में उनके पैरों के नाखून प्लास से उखाड़ दिए गए थे. 15 से 20 दिन तक किसी से मिलने की अनुमति नहीं थी.

स्वयंसेवकों के खिलाफ दर्ज किए गए झूठे मुकदमें

इमरजेंसी का विरोध करने पर पुलिस लोगों के खिलाफ फर्जी मुकदमा दर्जकर उन्हें जेल में डाल देती थी. देश के अधिकतर अखबारों पर पाबंदी लगी थी, कुछ अखबार लिखते भी थे, तो वह सरकार के दबाव में उसी का गुणगान करते थे. लोगों तक सही खबरें नहीं पहुंच रही थीं. इसी को देखते हुए हमीरपुर जिला स्थित मौदहा कस्बे के संघ के बौद्धिक प्रमुख देवी प्रसाद गुप्ता व जिला प्रचारक ओमप्रकाश ने स्थानीय स्तर पर अखबार प्रकाशित करना प्रारंभ किया.

वह इस अखबार के माध्यम से इमरजेंसी के दौरान हो रही क्रूरता की खबरें अखबार में छापकर स्थानीय स्तर पर बांटते थे. पुलिस को इस बात की जानकारी मिली, तो स्वयंसेवकों के घरों पर छापा मारा गया. पुलिस ने लोगों से प्रिंटिंग प्रेस की मशीनों के बारे में पूछताछ की. अखबार के माध्यम से इमरजेंसी का विरोध करने पर पुलिस ने संघ के कार्यकर्ता देवी प्रसाद गुप्ता, ओमप्रकाश व उनके साथियों को यातनाएं दीं. साथ ही ट्रेन की पटरी उखाड़ने का झूठा मुकदमा दर्जकर उन्हें जेल में डाल दिया गया. जहां उन्हें जमकर प्रताड़ना दी गई. पुलिस ने फर्जी रूप से ट्रेन की पटरी खोदने का मामला दर्ज करते हुए छेनी और हथौड़ी भी बरामद करवा दिया.

यह भी पढ़ें: गोरखपुर: संघ के अनुषांगिक संगठन ‘राष्ट्र सेविका समिति’ का पथ संचलन, जानिए समाज के बीच कैसे कार्य करती हैं संगठन से जुड़ी सेविकाएं, क्या है इतिहास?

Tags: 50 years of Emergencybrutality during emergencyemergencyforced sterilizationpolice firing during emergency
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