महाकुंभ नगर: सनातनी परंपरा का प्रतीक महाकुंभ के मूल में आध्यात्मिकता है. विश्वभर में रचने-बसने वाले सनातनियों को प्रत्येक छह वर्ष पर लगने वाले कुंभ और 12 साल पर लगने वाले पूर्ण कुंभ की प्रतीक्षा रहती है. लेकिन इतनी ही प्रतीक्षा संन्यास की राह पर चल पड़े नागा साधुओं को भी रहती है. ऐसा इसलिए क्योंकि कुंभ के ही अवसर पर उन्हें नागा साधु की पदवी मिलती है. इस महाकुंभ में भी अलग-अलग अखाड़ों के करीब 8,500 साधु नागा के रूप में पट्टाभिषेक हुआ है. इसमें जूना अखाड़ा, महानिर्वाणी, निरंजनी, अटल, आवाहन और बड़ा उदासीन में संन्यासी बनाए गए हैं.
महाकुंभ में 8,500 ने चुनी संन्यास की राह
महाकुम्भ में 28 जनवरी तक कुल 8,495 नागा संन्यासी बनाए जा चुके हैं. इसमें जूना अखाड़ा में 4,500 संन्यासी, 2,150 संन्यासिनी, महानिर्वाणी में 250, निरंजनी में 1,100 संन्यासी और 150 संन्यासिनी शामिल हैं. इसके अलावा अटल में 85 संन्यासी, आवाहन में 150, और बड़ा उदासीन अखाड़ा में 110 संन्यासी बनाए गए हैं. संन्यास लेने वालों में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और बिहार की महिलाएं और पुरुष शामिल हैं.
सबसे ज्यादा जूना अखाड़े में बने संन्यासी
जूना अखाड़ा में कुल 4,500 नागा संन्यासी और 2,150 संन्यासिनी बनाए गए हैं. बीती 2 फरवरी को जूना अखाड़ा ने 200 पुरुष और 20 महिलाओं को विधि-विधान के साथ संन्यास दिलाया. इन लोगों ने पिंडदान और विजया हवन कर अपने जीवन को सनातन धर्म के प्रति समर्पित कर दिया.
लंबी है नागा साधु बनने की प्रक्रिया
लोग जानना चाहते हैं कि नागा साधुओं की दीक्षा कैसे होती है? दरअसल, नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लंबी होती है. नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं. इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते. कुंभ मेले में अंतिम संकल्प लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर दिगंबर ही रहते हैं.
पहले ब्रह्मचारी, महापुरुष और अवधूत की परंपरा
सभी अखाड़े अच्छी तरह जांच-परख कर योग्य व्यक्ति को ही प्रवेश देता हैं. पहले उसे संबे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है, फिर उसे महापुरुष तथा फिर अवधूत बनाया जाता है. अंतिम प्रक्रिया महाकुंभ के दौरान होती है, जिसमें उसका स्वयं का पिंडदान और दंडी संस्कार आदि शामिल होता है.
मौनी अमावस्या का विशेष महत्व
एक संन्यासी को नागा साधु बनाने की प्रक्रिया मौनी अमावस्या से पहले शुरू हो जाती है. परंपरा के अनुसार, पहले दिन मध्यरात्रि में एक विशेष पूजा की जाती है, जिसमें दीक्षा ले चुके संन्यासी को उनके संबंधित गुरु के सामने नागा बनाया जाएगा. संन्यासी मध्यरात्रि में गंगा में 108 डुबकी लगाएंगे. इस स्नान के बाद, उनकी आधी शिखा (चोटी) काट दी जाएगी. बाद में, उन्हें तपस्या करने के लिए जंगल में भेज दिया जाएगा. आस-पास कोई जंगल न होने की स्थिति में, संन्यासी अपना शिविर छोड़ देते हैं. उन्हें मनाने के बाद वापस बुलाया जाएगा. तीसरे दिन, वे नागा के रूप में वापस आएंगे और उन्हें अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर के सामने लाया जाता है. नए नागा अपने हाथों की अंजुलि बनाकर गुरुओं को जल अर्पित करेंगे. गुरु अगर जल स्वीकार कर लेता है तो माना जाता है कि उन्हें नागा के रूप में स्वीकार कर लिया गया है.
गुरु नए नागाओं की काटते हैं चोटी
मौनी अमावस्या को सुबह 4 बजे होने वाले स्नान से पहले, गुरु नए नागा संन्यासियों की शिखा काट देते हैं. जब अखाड़ा मौनी अमावस्या के स्नान के लिए जाता है, तो उन्हें भी अन्य नागाओं के साथ स्नान के लिए भेजा जाता है. इस तरह वर्षों चलने वाली नागा साधु बनने की प्रक्रिया पूरी होती है. प्राप्त जानकारी के अनुसार, इनमें से कुछ हमेशा दिगंबर रहते हैं. जबकि कुछ इस विकल्प का चुनाव करते हैं कि केवल अमृत स्नान के समय ही नागा साधु के वेश में बाहर आएं.
इनपुट- हिन्दुस्थान समाचार