वैसे तो भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम योगदान देने वालों की लिस्ट बहुत लंबी है। लेकिन आज हम जिनके बारे में आपको बताने जा रहे हैं, उनका लोहा अंग्रेज भी मानते थे। वे एक ऐसे राष्ट्रवादी थे, जिन्होंने सनातन परंपरा को जीवंत रखने का बीड़ा उठाया था। हम बात कर रहे हैं विनायक दामोदर सावरकर की,, जिन्हें लोग वीर सावरकर के नाम से भी जानते हैं।
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28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक में भगूर गांव में जन्मे सावरकर एक प्रबल राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ समाज सुधारक, इतिहासकार, राजनेता और विचारक भी थे। वीर सावरकर को सदियों पुरानी सनातनी परंपरा को कायम रखने और हिन्दू राष्ट्रवाद को राजनीतिक विचारधारा के रूप में विकसित करने का श्रेय जाता है। सावरकर ने देश में जबरन धर्मांतरित हुए हिन्दुओं की वापसी के लिए प्रयास किए और कई आंदोलन भी चलाए। ‘हिन्दुत्व’ शब्द को लाने वाले भी वीर सावरकर ही थे, जिन्होंने सबसे पहले इस शब्द का प्रयोग किया था।
मां दुर्गा के सामने लिया संकल्प
22 जून 1897 को पूना में चापेकर भाइयों द्वारा दो ब्रिटिश आयुक्तों की हत्या और फिर दामोदरपंत चापेकर को दी गई फांसी की घटना ने युवा सावरकर को काफी विचलित कर दिया था। उन्होंने देवी दुर्गा के सामने चापेकर के अधूरे मिशन को पूरा करने का संकल्प लिया।
इंग्लैंड में भारतीय छात्रों को किया एकजुट
1906 में बैरिस्टर बनने के लिए सावरकर इंग्लैंड गए,, जहां उन्होंने भारतीय छात्रों को अंग्रेजों के विरोध में एकजुट किया। उन्होंने वहीं पर ‘आजाद भारत सोसाइटी’ का गठन किया। वे ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे, जिनके लेखों पर अंग्रेजों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंध लगा दिया था। उनकी पुस्तक ‘इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस 1857’ पूरी तरह से लिखी जा चुकी थी, लेकिन अंग्रेजों ने ब्रिटेन और भारत में उसके प्रकाशन पर रोक लगा दी थी। कुछ समय बाद ये पुस्तक हॉलैंड में गुपचुप तरीके से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियां फ्रांस पहुंची और बाद में भारत पहुंचीं।
वीर सावरकर को हुई थी काला पानी की सजा
1909 में तत्कालीन ब्रिटिश कलेक्टर ए.एम.टी जैक्सन की हत्या के बाद सावरकर को 13 मार्च 1910 को लंदन में अंग्रेजों ने कैद कर लिया। कोर्ट में उनपर गंभीर आरोप लगे, और उन्हें 50 साल जेल की सजा हुई। उनको कालापानी की सजा के लिए अंडमान की सेलुलर जेल भेजा गया। लगभग 14 साल के बाद उनकी वहां से रिहाई हुई। कालापानी के दौरान सावरकर ने कील और कोयले से अपनी कविताएं लिखीं। उन्होंने दस हजार पंक्तियों की कविता को जेल से छूटने के बाद दोबारा से लिखा।
राजनीति के कार्य पर लगा था 5 साल का प्रतिबंध
उन्हें 2 मई 1921 को रत्नागिरी जेल भेजा गया और वहां से यरवदा जेल भेज दिया गया। रत्नागिरी जेल में उन्होंने ‘हिंदुत्व’ पुस्तक की भी रचना की। वर्ष 1924 में उनको फिर से रिहाई तो मिली मगर रिहाई की शर्तों के अनुसार उनको न तो रत्नागिरी से बाहर जाने की अनुमति थी और न ही वह 5 वर्ष तक कोई राजनीति का कार्य कर सकते थे। रिहा होने के बाद उन्होंने 23 जनवरी 1924 को ‘रत्नागिरी हिंदू सभा’ का गठन किया था। जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति और समाज कल्याण के लिए कार्य करना शुरू किया।
सावरकर ने दिया था तिरंगे में धर्म चक्र लगाने का सर्वप्रथम सुझाव
सावरकर स्वराज पार्टी में शामिल हुए थे और बाद में उन्होंने देश व्यापी अखिल भारतीय हिंदू महासभा नाम का एक अलग संगठन बना लिया। सावरकर वर्ष 1937 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और बाद में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का हिस्सा भी रहे। उन्होंने भारत विभाजन और पाकिस्तान को अलग देश बनाने का विरोध किया और गांधी जी को भी ऐसा करने के लिए निवेदन किया। अपने जीवनकाल में सावरकर एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनको दो बार आजीवन कारावास की सजा हुई थी। उनके द्वारा ही तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया गया था।