बावन इमली (फतेहपुर); भारत की आजादी के लिए अनेक वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी, यातनाओं का सामना किया और सजा काटी. लेकिन स्वाधीनता की इस लड़ाई में क्रांतिकारियों के साथ-साथ प्रकृति का भी बड़ा योगदान है. भारत की पुण्यभूमि पर सिर्फ महामानवों ने ही जन्म नहीं लिया, बल्कि मां भारती की गोद में ऐसी अनेक नदियों, पहाड़ों, झीलों और पेड़-पौधों को भी स्थान मिला जिनका देश की आजादी में बहुत बड़ा योगदान है. इन्हीं में से एक है उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले में स्थित ‘बावन इमली’ का पेड़. यह सिर्फ एक इमली का पेड़ नहीं, बल्कि हमारे देश के महान क्रांतिकारियों के पराक्रम, शौर्य और बलिदान का जीता जागता सबूत है.
1857 से शुरू हुई बावन इमली की कहानी
दरअसल, 52 इमली की कहानी प्रारंभ होती है, 1857 से. 29 मार्च, 1857 को मेरठ की बैरकपुर छावनी में तैनात क्रांतिकारी मंगल पांडे ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांति की चिंगारी जला दी. धीरे-धीरे क्रांति की यह चिंगारी ज्वाला के रूप में परिवर्तित हो गई. जिसकी लपटें फतेहपुर तक भी आ पहुंचीं. मेरठ की क्रांति का असर फतेहपुर के क्रांतिकारी ठाकुर जोधा सिंह अटैया पर विशेष रूप से पड़ा. जिसके बाद वह भी देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करने के लिए स्वाधीनता संग्राम के रण में कूद पड़े.
क्रांतिकारी जोधा सिंह का जन्म
फतेहपुर जिले की बिंदकी तहसील क्षेत्र के गांव पराधा में जन्मे क्रांतिकारी जोधा सिंह ने 10 जून 1857 को फतेहपुर में क्रांति का ऐलान कर दिया. जोधा सिंह से प्रभावित होकर अवध व बुंदेलखंड के कई क्रांतिकारी उनके साथ जुड़ते चले गए. धीरे-धीरे क्रांतिकारियों की पूरी फौज खड़ी हो गई, जिसने फतेहपुर, कानपुर और आसपास के जिलों में अंग्रेजों की नींद हराम कर दी. जोधा सिंह द्वारा तैयार की गई क्रांतिकारियों की टुकड़ी ‘गुरिल्ला युद्ध’ में माहिर थी. इसी युद्ध कला के जरिए क्रांतिकारी अग्रंजों को चुन-चुन कर मारते थे. जिससे ब्रिटिश हुकूमत के बीच दहशत मच गई.
क्रांतिकारियों ने फतेहपुर के कोषागार और कचहरी पर किया कब्जा
स्वाधीनता संग्राम के दौरान जोधा सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने फतेहपुर के जिला कोषागार और कचहरी पर कब्जा कर लिया. इसके बाद जोधा सिंह ने फतेहपुर जिले के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खां को जिले का प्रशासक घोषित कर दिया. लेकिन अंग्रेजों के चतुरंगी सेना के सामने उनकी यह घोषणा ज्यादा समय तक नहीं टिक सकी. 12 जुलाई 1857 को अंग्रेज मेजर रेनार्ड और हैवलॉक ने भारी फोर्स के साथ कचहरी पर हमला कर दिया और हिकमत उल्ला को गिरफ्तार कर उनका सिर धड़ से अलग तक दिया. क्रांतिकारियों के अंदर खौफ पैदा करने के लिए अंग्रेजों ने हिकमत उल्ला के सिर को कोतवाली के गेट पर टांग दिया. हालांकि, इसके बाद भी आजादी के मतवालों का जुनून कम नहीं हुआ.
क्रांतिकारियों ने हराम कर दी थी फिरंगियों की नींद
जोधा सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ छापामार युद्ध यानी गुरिल्ला युद्ध जारी रखा. नवंबर 1857 में तात्या टोपे और जोधा सिंह के नेतृत्व में फतेहपुर के क्रांतिकारियों ने जनरल विंढम और उसकी अंग्रेजी फौज को हराकर कानपुर पर कब्जा कर लिया. इसके बाद भी क्रांतिकारियों के मन में जल रही आजादी की ज्वाला कम नहीं हुई. जोधा सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने 27 अक्टूबर 1857 को महमूदपुर गांव के पास एक ब्रिटिश दारोगा और सिपाही को मौत के घाट उतार दिया. फिर 7 दिसंबर 1857 को जोधा सिंह ने गंगापार रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला कर कई अंग्रेजों को मार डाला तथा अंग्रेजों को खदेड़कर कानपुर के बाद फतेहपुर पर भी कब्जा कर लिया.
छापामार (गुरिल्ला) युद्ध में माहिर फतेहपुर के क्रांतिकारियों की सेना लगातार अंग्रेजों को छकाती जा रही थी. परेशान किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए दिसंबर 1857 क्रांतिकारी जोधा सिंह ने जहानाबाद के तहसीलदार को बंधक बना लिया. उन्होंने तहसीलदार की रिहाई के बदले किसानों की लगान को माफ करवाया.
गुरिल्ला युद्ध के जरिए अंग्रेजों को दी मात
क्रांतिकारियों ने फतेहपुर के गांव खजुहा को अपना केंद्र बनाया. यहां आसपास के क्षेत्रों में विशाल जंगल था. यही जंगल क्रांतिकारियों का अड्डा हुआ करता था. गुप्तचरों से यह जानकारी अंग्रेजों को मिल गई. लेफ्टिनेंट कर्नल पावेल ने अपनी फौज के साथ जंगल में आगे की योजना बना रहे जोधा सिंह और उनके साथियों को चारों ओर से घेर लिया. जिसके बाद दोनों तरफ से भीषण संग्राम हुआ. इस दौरान लेफ्टिनेंट कर्नल पावेल मारा गया. कर्नल पावेल की मौत से अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिला गईं. जिसके बाद ब्रटिश सरकार ने जोधा सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए कैप्टन नील के नेतृत्व में एक विशाल फौज भेजी. इस युद्ध में जोधा सिंह के कई साथी मारे गए. लेकिन गुरिल्ला युद्ध में महारत रखने वाले क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना का खूब आघात पहुंचाया.
अंग्रेजों ने एक साथ 52 क्रांतिकारियों को इमली के पेड़ पर लटकाया
इस युद्ध के बाद अंग्रजों ने क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए चारों तरफ जाल बिछा दिया. लेकिन, जोधा सिंह और उनके साथी रात के अंधेरे और अपना वेष बदलकर क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करते रहे. 28 अप्रैल 1858 को महारथी जोधा सिंह अर्गल के राजा गणपत सिंह से भेंटकर लौट रहे थे. तभी मुखबिर की सूचना पर कर्नल क्रिस्टाईल ने अंग्रेजी सेना के साथ जोधा सिंह और उनके 51 साथियों को घोरहा गांव के पास धोखे से घेर कर गिरफ्तार कर लिया.
अंग्रेजों के मन में जोधा सिंह और उनके क्रांतिकारी दल का भय इतना था कि ब्रटिश हुकूमत ने, गिरफ्तारी वाले दिन 28 अप्रैल 1858 को ही…खजुहा गांव के पास जंगल में स्थित इमली के पेड़ पर सभी 52 क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया. साथ ही लोगों के बीच दहशत फैलाने के लिए अंग्रेजों ने ऐलान कर दिया कि जो भी शवों को पेड़ से उतारेगा उसे भी फांसी की सजा दी जाएगी. इस घटना के बाद वह इमली का पेड़ ‘बावन इमली’ के नाम से जाना जाता है.
महाराज सिंह ने किया शवों का अंतिम संस्कार
52 क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी की सजा देना, एशिया की पहली ऐसी घटना थी, जिसे अंग्रेजों ने फतेहपुर में अंजाम दिया था. ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किया गया यह एक सामूहिक नरसंहार था, जिसे अंग्रेजों ने फांसी का नाम दिया था. अंग्रेजों के भय से क्रांतिकारियों के शवों को कोई उतारने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. करीह एक महीने तक शव इमली के पेड़ पर ही लटकते रहे. जब यह जानकारी जोधा सिंह के करीबी महाराज सिंह को मिली, तो उन्होंने 3 और 4 जून की रात सभी शव जो तब कंकाल में तब्दील हो चुके थे उन्हें पेड़ से उतार कर कानपुर स्थित शिवराजपुर घाट पर अंतिम संस्कार किया.
जोधा सिंह और उनके साथियों जैसे अनेक क्रांतिकारियों के प्रयासों के चलते हमारा भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया. जिसके बाद सरकार ने ऐतिहासिक ‘बावन इमली’ पेड़ का संरक्षण करते हुए वहां एक स्मारक का निर्माण करवाया है. इमली के पेड़ के नीचे 52 स्तंभ बनाए गए हैं. जो जोधा सिंह अटैया और उनके साथियों के बलिदान का प्रतीक हैं. साथ ही परिसर में क्रांतिकारी जोधा सिंह की एक मूर्ति भी बनाई गई है. इसके अलावा एक पत्थर पर सभी 52 क्रांतिकारियों के नाम और पता का भी उल्लेख किया गया है.