लाइव यूपी टुडे (डेस्क): सनातन संस्कृति में भगवान गणेश को प्रथम पूज्य देवता माना जाता है। किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले भगवान गणेश का मंत्रों द्वारा आह्वान करना हमारी परंपरा में शामिल है। निमंत्रण पत्रों पर सबसे ऊपर भगवान गणेश का चित्र और ‘श्री गणेशाय नम:’ लिखने की परंपरा भारत में प्रचलित है। भगवान गणेश को मंगलमूर्ति और बुद्धि का देवता माना जाता है। आजकल देश में गणेश उत्सव की धूम मची हुई है। भाद्रपद मास की चतुर्थी तिथि यानी 7 सितंबर दिन शुक्रवार को गणेश चतुर्थी से प्रारंभ हुआ गणेश उत्सव 17 सितंबर अनंत चतुर्दशी तिथि को समाप्त होगा।
वैसे तो गणेश उत्सव दक्षिण भारत के राज्य जैसे की महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु में विषेश रूप से मनाया जाता है। हालांकि, अब धीरे-धीरे उत्तर भारत में इसका प्रचलन बढ़ रहा है। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि इस परंपरा का प्रारंभ समाज में व्याप्त छुआछूत, सामाजिक भेदभाव व सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए लोगों को एकजुट करने के लिए किया गया था।
मराठा साम्राज्य के दौरान बढ़ा गणेश पूजा का चलन
16वीं सदी में, मराठा साम्राज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज के शासनकाल में महाराष्ट्र में गणेश पूजा का प्रचलन तेजी से बढ़ा. शिवाजी महाराज की माता जीजाबाई परम गणेश भक्त थीं. माता जीजाबाई ने अपने पति शाहाजी भोंसले के साथ 1630 में पुणे आई थीं।
तब उन्होंने यहां कसबा गणपति मंदिर की स्थापना की. जिसके बाद इस मंदिर में बड़ी संख्या में लोग दर्शन-पूजन के लिए आने लगे. छत्रपति शिवाजी महाराज के शासन काल में गणेश पूजन का चलन खूब बढ़ा. मराठा साम्राज्य में आने वाले क्षेत्रों में कई गणेश मंदिरों की स्थापना की गई. जिससे गणेश पूजन का चलन बढ़ता चला गया.
पेशवाओं ने प्रारंभ की गणेश चतुर्थी पर विशेष अनुष्ठान की परंपरा
18वीं सदी में महाराष्ट्र व उसके आसपास के इलाकों में पेशवाओं का शासन था. पेशवा बालाजी बाजीराव जिन्हें ‘ नाना साहेब’ के नाम से भी जाना जाता है. वह भी भगवान गणेश के अनन्य भक्त थे. उन्होंने गणेश पूजन को बहुत महत्व दिया. पेशवा बालाजी बाजीराव अपने शासन काल में पुणे में कस्बा गणपति मंदिर सहित छत्रपति शिवाजी महाराज के शासन काल में बने प्रमुख गणेश मंदिरों में गणेश चतुर्थी के दिन विशेष अनुष्ठान का आयोजन करवाते थे.
साथ ही पेशवाओं के निवास शनिवारवाड़ा किला में प्रतिवर्ष गणेश उत्सव मनाया जाता था. बाद में धीरे-धीरे यह परंपरा पूरे राजसी परिवारों के बीच फैलनी लगी. हालांकि, फिर भी उस समय गणेश उत्सव सार्वजनिक रूप से समाज के कुछ ही परिवारों व वर्गों के भीतर मनाया जाता था. जिसके आम लोगों के बीच पहुंचाने का इतिहास काफी दिलचस्प है.
पाइधोनी सांप्रदायिक हिंसा के चलते प्रारंभ हुई सार्वजनिक गणेश पूजा की परंपरा
1892 तक गणेश उत्सव शाही परिवारों, प्राचीन गणेश मंदिरों तक ही सीमित था. लेकिन, अगस्त 1893 में महाराष्ट्र के पाइधोनी में एक सांप्रदायिक घटना घटी. पाइधोनी स्थित हनुमान मंदिर में हो रहे भजन-कीर्तन का मुसलमानों ने विरोध किया. जिसके चलते हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव उत्पन्न हुआ. बाद में इस तनाव ने सांप्रदायिक दंगों का रूप ले लिया। इन दंगों को ब्रिटिश सरकार ने भारत में फूट डालने के तौर पर इस्तेमाल किया.
अंग्रेजी सरकार ने एकतरफा फैसले लिए. जिसके बाद उस समय के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी केसरी व मराठा समाचार पत्र के संपादक बाल गंगाधर तिलक ने हिंदुओं की वकालत की। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की खूब आलोचना की। हालांकि, इसी सांप्रदायिक घटना के चलते महाराष्ट्र में सार्वजनिक गणेश पूजा उत्सव का प्रचलन भी प्रारंभ हुआ।
तिलकजी ने हिंदुओं को एकजुट करने के लिए प्रारंभ किया सार्वजनिक गणेश पूजा उत्सव
1893 के दौरान महाराष्ट्र के बड़े क्षेत्रफल में मुहर्रम का जुलूस लोकप्रिय हो रहा था. इस जुलूस में बड़ी संख्या में हिंदू समाज के लोग भी शामिल होते थे. लेकिन पाइधोनी हनुमान मंदिर की घटना पर मुस्लिमों के व्यवहार को देखते हुए बाल गंगाधर तिलक ने हिंदू समाज को एकजुट करने के लिए गणेश उत्सव को माध्यम बनाया. वह जानते थे, भगवान गणेश महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश में सर्वमान्य देवता हैं. तिलकजी ने गणेश उत्सव को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक उत्सव के रूप में मनाना प्रारंभ करने का लोगों से अह्वान किया.
1892 में पहली बार मनाया गया सार्वजनिक गणेश पूजा उत्सव
दरअलस, पाइधोनी हनुमान मंदिर की घटना से एक साल पहले ही 1892 में पहला सार्वजनिक गणेश चतुर्थी उत्सव मनाया गया था. इस गणेश उत्सव का आयोजन पुणे के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और शाही चिकित्सक भाऊसाहेब लक्ष्मण जावले (श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी) ने किया. भाऊसाहेब के मित्र कृष्णाजी पंत खासगीवाले ने उस समय के मराठा शासित नगर ग्वालियर का दौरा किया था. यहां उन्होंने एक सामाजिक उत्सव देखा. जिसके बाद उन्होंने पुणे पहुंचकर इसकी जानकारी अपने मित्र भाऊसाहेब लक्ष्मण जावले को दी. जिसके बाद भाऊसाहेब लक्ष्मण जावले ने भी उसी प्रकार के सार्वजनिक उत्सव को गणेश पूजा उत्सव के रूप में पहली बार 1892 में शालुकार (अब वाड़ा ) में मनाया. जिसने बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए.
यूं कहें 1892 में पहली बाद देश में सार्वजनिक गणेश पूजा उत्सव मनाया गया. इसी बीच उन्होंने 1893 में फिर से सार्वजनिक गणेश पूजा उत्सव का आयोजन किया. इस गणेश उत्सव में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भी शामिल हुए. तिलकजी इस सार्वजनिक गणेश पूजा उत्सव को देखकर काफी प्रभावित हुए और इसे राष्ट्रीय सार्वजनिक पूजा उत्सव बनाने की तैयारी करने लगे.
समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करना था उद्देश्य
26 सितंबर 1893 को लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी द्वारा आयोजित सार्वजनिक गणेश पूजा उत्सव के तारीफ में अपने समाचार पत्र केसरी में एक लेख लिखा. जिसमें उन्होंने श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी के प्रयासों की जमकर प्रशंसा की. फिर उन्होंने अपने पुणे स्थिति केसरीवाड़ा घर पर सार्वजनिक गणेश उत्सव का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने सभी वर्गों के लोगों को आमंत्रित किया. इस उत्सव में बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए. उनके इस पहल को हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे कि छुआछूत, ऊंच-नीच के भेदभाव को समाप्त करने के तौर पर देखा गया.
बालगंगाधर तिलक की मुहिम लाई रंग
बालगंगाधर तिलक के इस प्रयास के बाद महाराष्ट्र और आसपास के राज्यों में सार्वजनिक गणेश उत्सव का प्रचलन तेजी के साथ बढ़ने लगा. जो समय के साथ व्यापक और विस्तृत होता गया. सार्वजनिक गणेश उत्सव में बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ एकत्रित होती थी. गणेश उत्सव को देखते हुए पुणे में निकलने वाले मुहर्रम जुलूस में लोगों की संख्या काफी कम हो गई.
इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह थी पाइधोनी सांप्रदायिक हिंसा थी.क्योंकि, जो हिंदू समाज के लोग अबतक मुहर्रम जुलूस में शामिल होते थे, अब उन्होंने मुहर्रम जुलूस में शामिल होने के बजाए सार्वजनिक गणेश उत्सवों में जाना प्रारंभ कर दिया था. इसके पीछे लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की बड़ी भूमिका थी.
स्वाधीनता संग्राम में सार्वजनिक गणेश उत्सव का अहम योगदान
इसी बीच ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारत में विरोध बढ़ता जा रहा था. जिसको देखते हुए अंग्रेजों ने राजद्रोह रोकथाम बैठक अधिनियम 1907 कानून बनाया. इस कानून के तहत देश में राजनीतिक सभाओं पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार ब्रिटिश हुकूमत के पास आ गया और देश में राजनीति सभाओं पर प्रतिबंध लगाया जाने लगा. राजनीति सभाओं पर रोक लगने के चलते 1907 के दौरान सार्वजनिक गणेश पूजा पंडाल स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का प्रमुख अड्डा बन गए थे.
इन पंडालों में क्रांतिकारियों के बीच उत्साह भरने के लिए राष्ट्रवादी गीतों को बजाया जाता था. जिससे लोगों के बीच फिरंगी हुकूमत के खिलाफ माहौल तैयार किया जा सके. चूंकि सार्वजनिक गणेश पूजा पंडाल धार्मिक आयोजन था, इसलिए अंग्रेज इस पर रोक भी नहीं लगा सकते थे. इतिहासकारों का मानना है कि भारत की आजादी में सार्वजनिक गणेश पुजा पंडालों की बड़ी भूमिका रही है.
प्रतिवर्ष अरबों का होता है व्यापार
1892 में पुणे से प्रारंभ हुई सार्वजनिक गणेश पूजा पंडाल लगाने की परंपरा आज पूरे देश में फैल चुकी है. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, आज के समय में अकेले मुंबई में 20 हजार से अधिक सार्वजनिक गणेश पूजा पंडाल लगाए जाते हैं. 2015 में एसोचैम (ASSOCHAM) यानी एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, गणेश पूजा उत्सव का सालाना व्यापार करीब 20 हजार करोड़ है। जो प्रतिवर्ष 30 प्रतिशत की बड़ी दर से बढ़ रहा है।
यह उत्सव 10 दिनों तक जारी रहता है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, अब इन 10 दिनों में करीब 45 करोड़ का व्यापार होता है. जिसमें से अकेले प्रतिवर्ष 300 करोड़ रुपए की मूर्तियों का ही व्यापार होता है. जिससे लाखों की संख्या में लोगों को रोजगार मिलता है. जिसमें सबसे ज्यादा गरीब तबके के लोग शामिल हैं.