लखनऊ: आज से हजारों साल बाद भी अगर कारगिल युद्ध का जिक्र होगा, तो भारत के रणबाकुरों के शौर्य की तस्वीरें आंखों के सामने आ जाएंगी। राष्ट्र रक्षा के लिए मतवाले भारतीय जांबाजों के पराक्रम, शौर्य, वीरता और जज्बे के सामने कैसे पाकिस्तान और उसके पाखंड को नतमस्तक होना पड़ा था। भारत-पाकिस्तान के बीच 1999 में हुए कारगिल युद्ध का इतिहास भारत के गौरवशाली उस स्वर्णिमकाल में दर्ज हो गया, जिसके लिए वह दुनिया भर में अपनी विशेष पहचान रखता है।
दरअसल, आज 26 जुलाई को भारत 25वां कारगिल विजय दिवस मना रहा है। जिसको लेकर राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली सहित सभी प्रदेशों की राजधानियों में विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है। यूपी की राजधानी लखनऊ में भी कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है। ऐसे में यूपी के उन महाबलिदानियों का जिक्र करना आवश्यक हो जाता है, जिन्होंने कारगिल की चोटी पर तिरंगा फहराने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने तक में संकोच नहीं किया। जिसके चलते पाकिस्तानियों को दुम दबाकर भागना पड़ा।
कैप्टन मनोज पांडेय (परमवीर चक्र) मरणोपरांत
कैप्टन मनोज पांडेय नाम जुबां पर आते ही कारगिल युद्ध की यादें ताजा हो जाती हैं। कैप्टन पांडेय मूल रूप से सीतापुर जिले के रूढा गांव के रहने वाले थे। उनका जन्म 25 जून 1975 को हुआ। वह बचपन से सेना में जाने का सपना देखा करते थे। यह सपना 6 जून 1997 को सच हुआ, जब उन्हें 11 गोरखा राइफल में कमीशन प्राप्त हुआ। 1999 में भारत और पाकिस्तान के बीच कारगिल का वार छिड़ गया, जिसके चलते उनकी पलटन ने पुणे से कारगिल कूच किया।
दुश्मनों ने खालूबार पोस्ट को अपने कब्जे में ले लिया था, इस पोस्ट को आजाद कराने की जिम्मेदारी कैप्टन मनोज पांडेय को दी गई। 2 और 3 जुलाई को कैप्टन मनोज पांडेय ने अपने साथियों के साथ खालूबार पोस्ट की ओर आगे बढ़ रहे थे, तभी पाकिस्तानी फौज ने उन पर हमला कर दिया। लेकिन, पाकिस्तान की गोलियों में इतना दम कहां था कि वह कैप्टन मनोज पांडेय के हौसलों को पस्त कर पाए। उन्होंने वीरता का परिचय देते हुए पाकिस्तानियों का मुकाबला किया और खालूबार पोस्ट सहित कई बंकरों को आजाद कराया। लेकिन, इस लड़ाई में वह अधिक घायल होने के चलते 3 जुलाई 1999 को वीरगति को प्राप्त हुए। मरणोपरांत कैप्टन मनोज पांडेय को उनके उनके उत्कृष्ट साहस, नेतृत्व और कर्तव्य के प्रति समर्पण के लिए देश का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार “परमवीर चक्र” से सम्मानित किया गया।
कैप्टन आदित्य मिश्रा
कैप्टन आदित्य मिश्रा का जन्म यूपी की राजधानी लखनऊ में 24 दिसंबर 1974 को हुआ था। उनका परिवार मूलरूप से अल्मोड़ा का रहने वाला था। लेकिन, बाद में लखनऊ में बस गया। कैप्टन आदित्य मिश्रा की प्रारंभिक शिक्षा लखनऊ में ही हुई। उनके पिता कर्नल जीएस मिश्रा भी सेना में थे। कैप्टन मिश्रा भी अपने पिता की तरह देश की सेवा करना चाहते थे। जिसके लिए वह मेहनत करते थे। 1992 में उनकी मेहनत रंग लाई और वह NDA में चयन हुआ। जून 1996 में वह 21 साल की आयु में बतौर द्वितीय लेफ्टिनेंट आईएमए से पास हुए। कैप्टन आदित्य मिश्रा को सिग्नल कोर में कमीशन मिला। सिग्नल कोर भारतीय आर्मी को संचार की सुविधा प्रदान करने वाली एक शाखा है। 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान कैप्टन आदित्य मिश्रा बटालिक सेक्टर में तैनात लद्दाख स्काउट्स की सिग्नल कंपनी के साथ कार्यरत थे। इस दौरान भारतीय सेना का ऑपरेशन विजय चल रहा था। कैप्टन आदित्य मिश्रा को फ्रंट-लाइन सैनिकों और कंट्रोल कमांड के बीच संचार लाइनें बिछाने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
कैप्टन मिश्रा जिस चौकी पर तैनात थे, वह 15 हजार फीट की उंचाई पर स्थित थी। उन्हें पथरीले मार्गों और रेंगकर वहां तक आना-जाना पड़ता था। जो संचार स्थापित करने के लिए अति आवश्यक था। उनकी हरकत पर दुश्मन ने नजर रखनी प्रारंभ कर दी, एक दिन कैप्टन आदित्य मिश्रा संचार लाइन स्थापित करने के लिए जा रहे थे। तभी पाकिस्तानी फौज ने उन पर गोलियां बरसाना शुरु कर दिया। उन्होंने दुश्मनों का डट कर सामना किया और संचार स्थापित करने में सफल रहे। लेकिन, इस लड़ाई में वह गंभीर रूप से घायल हो गया। गंभीर रूप से घायल होने के चलते 25 जुलाई 1999 को कैप्टन आदित्य मिश्रा देश की रक्षा करते हुए बलिदान हो गए।
लांस नायक केवलानंद द्विवेदी
लांस नायक केवलानंद द्विवेदी का जन्म पिथौरागढ़ (तब का उत्तर प्रदेश) में 1968 में हुआ था। बचपन से ही केवलानंद द्विवेदी को आर्मी में जाने की रुचि थी। आर्मी में जाने का सपना संजोकर जवान हुए केवलानंद द्विवेदी को देश की सेवा करने का बड़ा अवसर मिला, जो शायद कम ही लोगों को मिलता है। लांसनायक केवलानंद की शादी 1990 में कमला द्विवेदी से हुई। केवलानंद के बारे में कहा जाता है कि देश की सेवा करने के लिए उनमें इतना जज्बा था कि वह 9 साल की नौकरी में सिर्फ 4 बार अपने घर गए। कारगिल युद्ध में बलिदान होने से पहले 30 मई, 1999 को उन्होंने अपनी पत्नी से फोन बात की। तब उन्होंने अपनी पत्नी से दोनों बच्चों का खयाल रखने के लिए कहा था। 6 जून 1999 को वह कारगिल युद्ध के दौरान देश सेवा करते हुए बलिदान हो गए।
मेजर रितेश शर्मा
मेजर रितेश शर्मा का जन्म 27 अक्टूबर 1973 को यूपी के अलीगढ़ शहर में हुआ था। मेजर शर्मा की प्रारंभिक शिक्षा बदायूं और बरेली में हुई। बचपन से ही आर्मी में जाने का सपना देखने वाले मेजर रितेश शर्मा होनहार छात्र थे। उन्होंने लखनऊ के प्रसिद्ध ला मार्टिनियर कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद में वह बीएचयू से वाणिज्य स्नातक किया। इसके बाद वह संयुक्त रक्षा सेवा परीक्षा के माध्यम से सेना में शामिल हुए। मेजर रितेश शर्मा को 1995 में लेफ्टिनेंट के रूप में 17 जाट रेजिमेंट में कमीशन मिला। राजस्थान के श्री गंगानगर में तैनाती रहने के दौरान मेजर रितेश शर्मा ने कमांडो की ट्रेनिंग प्राप्त की। बाद में उन्हें आतंकवाद विरोधी अभियान के लिए जम्मू-कश्मीर भेजा गया। 1999 में LOC पर पाकिस्तानी घुसपैठ के बारे में जानकारी मिली तो उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध के लिए तैनात किया गया। युद्ध के प्रारंभिक चरणों में विभिन्न अभियानों की जिम्मेदारी उन्होंने ही संभाली। इसी दौरान उन्हें मेजर के पद पर प्रमोशन दिया गया।
युद्ध के दौरान मेजर रितेश शर्मा 17 जाट बटालियन की कमान संभाल रहे थे। उनकी बटालियन की पहली जिम्मेदारी टाइगर हिल के पश्चिमी छोर पर स्थित पर्वत चोटी प्वाइंट 4875 को दुश्मन के कब्जे से छुड़ाना था। क्योंकि, यह चोटी युद्ध की दृष्टि से काफी अहम थी। इस पर पाकिस्तानी सेना ने कब्जा कर लिया था। मेजर रितेश शर्मा चोटी से दुश्मनों को खदेड़ने के लिए, अपनी टुकड़ी के साथ लगातार आगे बढ़ रहे थे। उनकी टुकड़ी दुश्मनों पर काल बनकर बरस रही थी। लेकिन, युद्ध के पहले ही चरण में दुश्मनों का सामना करते हुए वह गंभीर रूप से घायल हो गए। घायल होने के 10 दिनों के भीतर ही वह ‘ऑपरेशन विजय’ में फिर से शामिल हो गए।
मेजर रितेश शर्मा की टुकड़ी ने पिंपल 1, 2 व मुश्कोह घाटी में महत्वपूर्ण स्थानों पर कब्जा कर लिया। हालांकि, 26 जुलाई 1999 को भारत ने पाकिस्तान को धूल चटाते हुए कारगिल की लड़ाई को जीत लिया। लेकिन, फिर भी सीमा पर पाकिस्तानी घुसपैठ और झड़पें जारी रहीं। एक दिन मेजर शर्मा को कुपवाड़ा सेक्टर में आतंकवादियों की घुसपैठ की जानकारी मिली। मेजर रितेश शर्मा अपनी टीम के साथ संदिग्ध क्षेत्र में पहुंचे और तलाशी अभियान प्रारंभ किया। सैनिकों ने आतंकवादियों को खोज कर उन्हें ललकारा, जिसके बाद दोनों ओर से भीषण गोलाबारी प्रारंभ हुई। मेजर रितेश शर्मा व उनके साथी सैनिकों ने 4 आतंकवादियों को मार गिराया। हालांकि, इस दौरान एक गोली मेजर रितेश शर्मा को भी लगी और वह गहरी खाई में गिर गए। उन्हें उधमपुर आर्मी अस्पताल में भर्ती कराया गया। लेकिन, उनकी हालत लगातार बिगड़ती चली गई। अंत में 6 अक्टूबर 1999 को उनकी मौत हो गई।
मेजर मनोज तलवार
कारगिल बलिदानी मेजर मनोज तलवार का जन्म यूपी के मेरठ जिले में 29 अगस्त 1969 को हुआ था। उनके पिता पीएल तलवार भी सेना से कैप्टन होकर सेवानिवृत्त हुए थे। मेजर तलवार का बचपन कानपुर में बीता। यहीं, पर उनके पिता की तैनाती थी। वह परिवार के साथ छावनी में रहते थे। छावनी में रहने के दौरान वह सैनिकों की परेड देखा करते थे, यहीं से उनका भी रुझान सेना में जाने के प्रति बढने लगा। वह एनडीए की परीक्षा उत्तीर्ण कर सशस्त्र बल चिकित्सा महाविद्यालय के लिए चुने गए। हालांकि, उन्होंने थल सेना अधिकारी के रूप में कार्य करने का निर्णय लिया। मेजर तलवार को 1992 में महार रेजिमेंट की तीसरी बटालियन में कमीशन मिला।
1999 में मेजर मनोज तलवार को सियाचिन ग्लेशियर के साल्टोरो रिज पर तैनात 9 महार बटालियन में शामिल किया गया। उस दौरान भारतीय सेना LOC के अलावा ज़ोजिला दर्रे के पूरब और पश्चिम में पाकिस्तानी सेना के खिलाफ ऑपरेशन चला रही थी। इसी को देखते हुए सियाचिन क्षेत्र में भी दुश्मन की गतिविधि काफी बढ़ गई थी। पाकिस्तान की यह योजना थी कि वह सियाचिन क्षेत्र के जरिए भी भारतीय सेना पर दबाव बनाए।
कहीं, दुश्मन किसी भारत की चौकी पर कब्जा न कर ले इसको लेकर भारतीय जवानों ने चौकसी बढ़ा दी थी। चूंकि, सियाचिन का भू-भाग बर्फीला चट्टानों व ऊबड़-खाबड़ मार्गों से आच्छादित है, इस लिए वहां दृश्यता बहुत कम थी। साथ ही दुश्मन की ओर से फायरिंग और तोपों से गोलीबारी की घटना को बराबर अंजाम दिया जा रहा था। इसी दौरान 13 जून 1999 को एक गश्ती दल का नेतृत्व मेजर मनोज तलवार कर रहे थे। तभी वह दुश्मन की गोलियों का शिकार हो गया। घायल होने के बाद भी वह बहादुरी के साथ दुश्मनों का सामना करते रहे। लेकिन, गहरी चोट के मात्र 29 वर्ष की आयु में वह देश की सेवा करते हुए बलिदान हो गए।
हवलदार यशवीर सिंह तोमर (वीर चक्र) मरणोपरांत
दरअसल, तोलोलिंग एलओसी के एकदम करीब है। यह क्षेत्र श्रीनगर लेह हाइवे से बिलकुल समीप है। कारगिल युद्ध के दौरान इस क्षेत्र पर पाकिस्तानी सेना ने छल पूर्वक कब्जा कर लिया था। तोलोलिंग से पाकिस्तानी आर्मी श्रीनगर-लेह हाइवे से निकलने वाली भारतीय जवानों की गाड़ियों को लगातार निशाना बना रहे थे। इसी के चलते इस इलाके में भारत का कब्जा होना अति आवश्यक था। तोलोलिंग की चोटी पर 18 ग्रेनिडयर्स को तिरंगा फहराने को जिम्मेदारी मिली। 18 ग्रेनिडयर्स के जवान तोलोलिंग पर दुश्मनों को खदेड़ कर कब्जा करने के लिए चढ़ाई कर रहे थे। लेकिन, ऊंचाई का फायदा उठाकर पाकिस्तानी आर्मी भारतीय जवानों पर अंधाधुंध फायरिंग कर रही थी। जिसमें 18 ग्रेनिडयर्स के 25 जवान बलिदान हो गए। इन जवानों में मेजर राजेश अधिकारी भी शामिल थे। मेजर अधिकारी के बलिदान के बाद कर्नल खुशाल ठाकुर ने टुकड़ी की कमान संभाली। उनके साथ लेफ्टिनेंट कर्नल विश्वनाथन भी पहुंच गए। 2 और 3 जून को योजना बनाकर दुश्मन पर हमला किया गया। लेकिन, इसमें भी कुछ जवान बलिदान हो गए और सफलता नहीं मिली।
जिसके बाद तोलोलिंग पर दोबारा कब्जा हासिल करने की जिम्मेदारी 2 राजपूताना राइफल्स को दी गई। राजपूताना राइफल्स की कमान मेजर विवेक गुप्ता संभाल रह थे। उनके साथ 11 जवान ऐसे थे, सभी का सरनेम तोमर था। जिसमें से हवलदार यशवीर सिंह तोमर भी थे। हालांकि , मेजर विवेक गुप्ता इस हमले में बलिदान हो गए। लेकिन, इससे पहले उसने हवलदार यशवीर सिंह तोमर ने उनसे कहा था कि हम लोग तोलोलिंग चोटी पर जा रहे हैं। जाते समय यशवीर सिंह के आखिरी शब्द थे, ‘साहब 11 तोमर जा रहे हैं, और 11 जीतकर लौटेंगे।’
चूंकि, दुश्मन ऊंचाई पर थे, इसलिए उन पर गोलियों का कोई असर नहीं हो रहा था। लेकिन, भारतीय सैनिकों के अंदर तोलोलिंग पर तिरंगा फहराने की बैचेनी बढती जा रही थी। हवलदार यशवीर सिंह तोमर के मन में कुछ और ही चल रहा था। उनके और अन्य जवानों के पास मौजूद 18 ग्रेनेड्स हवलदार तोमर ने एकत्रित किए और दुश्मन के बंकरों पर दे मारे। इस घटना में पाकिस्तान के कई सैनिक मौत के घाट उतर गए, साथ हवलदार यशवीर भी बलिदान हो गए। हवलदार यशवीर की इस बहादुरी के चलते भारतीय सेना ने तोलोलिंग की चोटी पर एक बार फिर से तिरंगा फहरा दिया। कहा जाता है कि जब हवलदार यशवीर सिंह तोमर का शव मिला तो उनके एक हाथ में राइफल और दूसरे हाथ में ग्रेनेड था। यशवीर सिंह तोमर के इस पराक्रम, कर्तव्यनिष्ठा और देश सेवा के लिए उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।
यूपी के इन जवानों ने भी कारगिल युद्ध में दिया सर्वोच्च बलिदान
ग्रेनेडियर मोहम्मद इश्तियाक खान (गाजीपुर), ग्रेनेडियर अमरुद्दीन अमरुद्दीन (मैनपुरी), ग्रेनेडियर अरबिंद्रा सिंह (मुरादाबाद),ग्रेनेडियर हसन अली खान (हाथरस), ग्रेनेडियल जुबेर अहमद (मेरठ), नायक आबिद खान (हरदोई), ग्रेनेडियल रिजवान त्यागी (मुजफ्फरनगर), ग्रेनेडियर हसन मोहम्मद,(आगरा),लांस नायक सतपाल सिंह (हापुड़),सिपाही सोरन सिंह कुंतल (मथुरा), क्राफ्ट मैन कमलेश सिंह (गाजीपुर),राइफलमैन बचन सिंह (मुजफ्फरनगर), नायक चमन सिंह (गाजियाबाद), नायक सुरेंद्र सिंह (बुलंदशहर), सिपाही नरेश सिंह (अलीगढ़), ग्रेनेडियर मनीष कुमार (मैनपुरी), ग्रेनेडियर पवन कुमार (मैनपुरी),सिपाही धर्मवीर सिंह (आगरा), सिपाही गजेंद्र सिंह (हाथरस), सूबेदार बालिक राम सिंह (बहराइच), हवलदार पदम सिंह धामा (बागपत), हवलदार कुमार सिंह सोगरवाल (आगरा),हवलदार हरिओम पाल सिंह (बदायूं), हवलदार जय नारायण त्रिपाठी (इटावा), हवलदार कंचन सिंह (प्रयागराज), हवलदार मानसिंह यादव (सुल्तानपुर), लांस नायक रामदुलारे यादव (गाजीपुर), सुबोध कुमार तोमर (बागपत) 21 जाट रेजीमेंट, अनिल तोमर (बागपत)
योगेंद्र सिंह यादव (परमवीर चक्र)
कारगिल युद्ध में पराक्रम की गाथा लिखने वाले मेरठ निवासी सूबेदार मेजर (रि) को सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया है। योगेंद्र सिंह यादव 19 साल की आयु में भारतीय सेना में शामिल हुए थे। कारगिल युद्ध के दौरान उनकी बटालियन को टाइगर हिल पर तिरंगा फहराने की जिम्मेदारी दी गई थी, चूंकि दुश्मन 16 हजार फिट की ऊंचाइ पर था, इसलिए वहां तक गोलियों का कोई भी प्रभाव पड़ रहा था। योगेंद्र सिंह टाइगर हिल पर कब्जा करने के लिए लगातार आगे बढ़ रहे थे। ऊंचाई पर पहुंचते ही योगेंद्र सिंह को पाकिस्तानी सैनिकों के कई बंकर दिखे। य देखकर उनका खून खौल उठा। ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह ने फायरिंग प्रारंभ कर दी, जिसमें पाकिस्तान के 6 जवान मौत के घाट उतर गए। वहीं, 2 जवान दुम दबाकर भाग गए।
योगेंद्र सिंह यादव व उनके साथियों की इस बहादुरी की जानकारी पाकिस्तानी आर्मी को मिली तो, 35 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें घेर लिया। घेराबंदी करने के बाद दुश्मनों ने फायरिंग प्रारंभ कर दी। जिससे योगेंद्र सिंह यादव के 6 साथी बलिदान हो गए। साथ ही कई पाकिस्तानी सैनिक भी मारे गए। भारतीय और पाकिस्तानी सैनिकों की लाशों के बीच योगेंद्र सिंह यादव भी खून से लथपथ पड़े थे। योगेंद्र सिंह के 15 गोलियां लगीं थीं। इस हमले में वह बुरी तरह घायल हो गए। लेकिन, उन्होंने हार नहीं मानी। खून से लथपथ योगेंद्र सिंह ने अपने पास रखी ग्रेनेट की पिन निकाली और उसे पाकिस्तानी सैनिकों के ऊपर फेंक दिया।
जिसके बाद बड़ी संख्या में पाकिस्तानी सैनिक मारे गए। साथ ही ग्रेनेडियर यादव ने पास पड़ी राइफल को उठाकर 5 और पाकिस्तानी सैनिकों को गोलियों से भून डाला। इसके बाद उन्होंने टाइगर हिल पर तिरंगा फहरा दिया। योगेंद्र सिंह यादव ने पाकिस्तानी आर्मी के कई ठिकानों को लोकेशन भी अपने उच्च अधिकारियों के पास भेज दी। जिसके चलते ‘ऑपरेशन विजय’ सफल हो सका। ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव की इस असाधारण वीरता के लिए उन्हें भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।