Prayajraj News- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने आपराधिक मामलों की जांच करने वाली पुलिस की जांच-प्रक्रिया सहित उसके द्वारा दाखिल किए जा रहे आरोप-पत्रों पर गम्भीर टिप्पणी की है। न्यायालय ने कहा है कि पुलिसिया जांच न्यायिक-निष्पक्षता और कानूनी-प्रणाली को खतरे में खड़ा कर रही है। न्यायालय ने ऐसे मामलों में पुलिस महानिदेशक से हस्तक्षेप करने की जरुरत बताई और कहा कि तुरंत उचित दिशा-निर्देश जारी कर जरुरी कदम उठाए जाने की जरूरत है। बता दें कि प्राथमिकी रिपोर्ट आईपीसी की धारा 302 के अन्तर्गत दर्ज हुई थी, लेकिन जांच-अधिकारी ने 302 को परिवर्तित करते हुए उसे 306 में आरोप-पत्र दाखिल कर दिया था।
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यूपी पुलिस की जांच और उसके बाद कार्यशैली के मामले में यह आदेश न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान ने आगरा के शाहगंज थाने में हत्या के मामले में दर्ज प्राथमिकी पर जमानत की मांग कर रहे याची भूदेव और फर्रूखाबाद के शमशाबाद थाने में दर्ज प्राथमिकी की याचिका पर जमानत की मांग कर रहे सूरज सिंह की जमानत अर्जी पर एक साथ सुनवाई करते हुए दिया है।
पुलिस जांच में 302 की धारा को परिवर्तित कर 306 में आरोप-पत्र किए दाखिल
बताते चलें कि ये मामला प्राथमिकी आईपीसी की धारा 302 के अन्तर्गत दर्ज हुई थी, लेकिन जांच अधिकारी ने 302 को परिवर्तित करते हुए उसे 306 में आरोप-पत्र दाखिल कर दिया। न्यायालय ने कहा कि दोनों ही मामले में जांच-अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों से यह नहीं पता चल रहा है कि मृतक ने खुद जहर खाया था या उसे आरोपी व्यक्तियों द्वारा दिया गया था। आजकल यह देखा जा रहा है कि जांच-अधिकारियों की ओर से साक्ष्य-संग्रह में पुलिस जरुरी साक्ष्य जुटाए बगैर ही आरोप-पत्र दाखिल कर रही है। पुलिस की यह प्रवृति न्यायालयों को परेशान करने वाली है। कोर्ट ने इसे निंदनीय बताया और कहा कि यह प्रथा न केवल कानूनी-प्रक्रिया की पवित्रता को कमजोर करती है बल्कि न्याय और निष्पक्षता के उन मूलभूत सिद्धांतों को भी खतरे में डालती है, जिन पर हमारी कानूनी-प्रणाली कायम है।
न्यायालन ने इस मामले में कहा कि मौजूदा समय में जांच-अधिकारियों द्वारा की जा रही जांचें प्रक्रियात्मक अनियमितताओं और अनुचित कार्यों को उजागर करतीं हैं। जिससे लगता है कि ठोस सबूतों के बिना, जल्दबाजी में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 306 के अन्तर्गत आरोप-पत्र दायर किया गया है। कहा कि उसके अधिकार क्षेत्र में ऐसी घटनाएं चिंताजनक रुप से बार-बार होकर सामने आ रही हैं। आरोप-पत्र बिना ठोस सबूतों के अभाव में दाखिल हो रहे हैं। लिहाजा, ऐसे मामलों में पुलिस महानिदेशक के लिए हस्तक्षेप करना और इन प्रणालीगत कमियों को दूर करने के लिए व्यापक दिशानिर्देश जारी करना अनिवार्य है।
न्यायालय ने कहा कि इस तरह के दिशा-निर्देशों में आरोप-पत्र दाखिल करने में साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए, संपूर्ण और निष्पक्ष जांच के सर्वोपरि महत्व पर जोर दिए जाने की जरुरत है। इसके अलावा जांच-अधिकारियों को उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराना अधिकारियों पर निर्भर हो। खासकर ऐसे मामलों में जहां उनकी लापरवाही या दुर्भावना से न्याय की विफलता होती है। यह जवाबदेही तंत्र सत्ता के मनमाने प्रयोग के खिलाफ निवारक के रूप में कार्य करता है और कानून-प्रवर्तन एजेंसियों की अखंडता में जनता के विश्वास को मजबूत करता है।
न्यायालन ने दोनों ही जमानत अर्जियों पर जांच-अधिकारी को तलब करते हुए उनसे धाराओं में परिवर्तन के लिए स्पष्टीकरण देने को कहा है और साथ ही पूछा है कि किन परिस्थितियों में उन्होंने धाराओं को परिवर्तित किया है। कोर्ट ने मामले की सुनवाई की अगली तारीख