सनातन धर्म को खलनायक साबित करने का षड्यंत्र चरम पर है। भारत में तमाम राजनीतिक दल सनातन धर्म को जातीय मतभेदों की वजह करार दे रहे हैं। उसे समाज को तोड़ने वाला बता रहे हैं। लेकिन शायद वे यह भूल रहे है कि फुनगियों के आधार पर जड़ आकलन संभव नहीं है। सनातन धर्म तो भारत की आत्मा है। यह भारत ही नहीं, दुनिया का पहला धर्म है। धरती का पहला धर्म है। धर्म धरती का पहला पुत्र है और कर्म दूसरा। हालांकि धर्म और कर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे पर टिका है। भगवान शिव को धर्म की जड़ कहा गया है। मूलं धर्मतरोर्विवेक जलधे पूर्णेन्दु मानंददं वैराग्याम्बुजभास्कर ह्यघधनंध्वान्तापहमतापहम। मतलब धर्म रूपी वृक्ष की जड़ भगवान शिव हैं। वे विवेक के समुद्र हैं और परम आनंददायी पूर्ण चंद्रमा हैं। सनातन धर्म मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र के कल्याण की कामना करता है। जो धर्म मनुष्य, यक्ष, कन्निर, गंधर्व, देव,दनुज, नाग, नग, नदी, नद, तालाब सबके संरक्षण और परितृप्तीकरण की कामना करता है। जिस देश में आदि शंकराचार्य ईश्वर से प्रार्थना करते वक्त अपने लिए कुछ मांगते ही नहीं, वे दुख संतप्त प्राणियों के कल्याणकी अभ्यर्थना करते हैं। नतोहं कामये राज्यं न सौख्यं न पुनभर्वम। कामये तुखतप्तानां प्राणिनाम आर्त नाशनम। उस सनातन धर्म पर इस तरह का लांछन बर्दाश्त के काबिल नहीं है।
सनातन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जो प्राणिमात्र की सुख शांति की कामना करता है। सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुख भाग भवेत। अपुत्रा पुत्रिण: सन्तु, पुद्धिण: सन्तु पौत्रिण:। निर्धना: सधनासन्तुजीवन्तु शरदां शतं। जो सबके मंगलकी कामना करता है, वह सनानतन धर्म है। जो हिंस्त्र जीवों के भी संरक्षण का तरफदार है, वह सनातन धर्म है। सत्य और यज्ञ को धर्म कहा गया है। सदाचरण और मर्यादा की पराकाष्ठा धर्म है। कोई भी ऐसा ग्रंथ नहीं जो सनातन धर्म को नकारता हो। नीति ग्रंथों में भी कहा गया है कि सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम अप्रियम। प्रियं च नानृतम ब्रूयात , एष धर्म: सनातन:। सत्य बोलना चाहिये, प्रिय बोलना चाहिये, सत्य किन्तु अप्रिय नहीं बोलना चाहिये । प्रिय किन्तु असत्य नहीं बोलना चाहिये । यही सनातन धर्म है। मतलब सत्य ही सनातन धर्म है। जब सत्य ही सनातन धर्म है तो सनातन धर्म की आलोचना करने वाले क्या सत्य से भटके हुए लोग हैं, यह अपने आप में सबसे बड़ा सवाल है।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि दूसरे के कर्तव्य का पालन करने से भय होता है और स्वधर्म में मरना भी बेहतर होता है। स्वधर्मे मरणं श्रेय:। अर्थात हमें दूसरे का अनुसरण या नकल करने की बजाय स्वधर्म को पहचानना चाहिए। दूसरों का अनुसरण करने से मन में भय उत्पन्न होता है। भय से मुक्त होने का एक ही माध्यम है। एक ही उपाय है और वह है स्वधर्म पहचानना और उसमें जीना। सनातन धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है कि शरीर नश्वर है पर आत्मा अमर है। यह तथ्य जानने पर भी व्यक्ति अपने इस नश्वर शरीर पर घमंड करता है जो कि बेकार है। शरीर पर घमंड करने के बजाय मनुष्य को सत्य स्वीकार करना चाहिए। हम खुश हैं या दुखी, यह हमारे अपने विचारों पर निर्भर है। अगर हम प्रसन्न रहना चाहते हैं तो हर हाल में प्रसन्न ही रहेंगे। अगर हम नकारात्मक चिंतन करते हैं तो हर हाल में दुखी ही होंगे। विचार ही हर व्यक्ति का शत्रु और मित्र होता है। अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है, यह विचार केवल सनातन धर्म की कोख से ही नि:सृत होता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के चौदहवें अध्याय गुणत्रय विभाग योग में कहा है कि किसी के साथ चलने से न तो कोई खुशी मिलती है और न ही लक्ष्य, इसलिए मनुष्य को सदैव अपने कर्मों पर विश्वास करते हुए अकेले चलते रहना चाहिए। ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम। अर्थात मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूं। आश्रय हूं, ऐसा कहनेका तात्पर्य ब्रह्म से अपनी अभिन्नता बताने में है। जैसे जलती हुई अग्नि साकार है और काष्ठ आदि में रहने वाली अग्नि निराकार है। ये अग्नि के दो रूप हैं? पर तत्त्वत: अग्नि एक ही है। ऐसे ही भगवान साकार रूप से हैं और ब्रह्म निराकार रूप से है। साधक उन्हें सगुण स्वरूप में देखते है या निर्गुण निराकार परब्रह्म स्वरूप में, यह तो उस पर , उसकी भक्ति पर, उसके विवेक पर निर्भर करता है। वेद सनातन धर्मके प्रथम ग्रंथ हैं। जब धरती पर कोई किताब नहीं थी तो पहली किताब ऋग्वेद थी जो ज्ञान की आदि पुस्तक मानी जाती है। वेदों में लिखा गया है कि सर्वं खल्विदं ब्रह्म। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या। अर्थात संसार में जो कुछ भी दृश्य और अदृश्य है, सब ईश्वर ही है। ईश्वर ही सत्य है। बाकी सारा संसार मिथ्या है। सनातन धर्म में परोपकार को सबसे बड़ा धर्म कहा गया है। इसे संतों यानी सज्जनों की विभूमि मतलब ऐश्वर्य कहा गया है। पिबन्ति नद्य: स्वयमेवनाम्भ: स्वयं न खदन्ति फलानि वृक्षा:। नादंतिसस्यं खलुवारिवाहा परोपकाराय सतां विभूतय:। इसी को कविवर रहीम ने कुछ इस तरह कहा, वृक्ष कबहुं नहिं फल भखै, पिबै न सरिता नीर। परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर।
गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस में लिखते हैं कि परहित सरिस धरम नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। मतलब हमारे यहां धर्म को ही ईश्वर का स्वरूप माना गया है। सभी प्राणियों को ईश्वर का अंश माना गया है। ईस्वर अंस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी। जो धर्म शुनि चैव श्वपाकेच पंडिता: समदर्शिन: की उद्घोषणा करता है, वह धर्म लांछन का विषय कैसे बन रहा है, इस पर विचार करने की जरूरत है। जो धर्म ब्रह्म को घट-घटवासी मानता है। जिस धर्म के बारे में कहा गया है कि वहां एक भक्ति का नाता ही प्रमुख है, वह धर्म इस तरह की बौनी और बचकानी आलोचना का विषय कैसे हो सकता है। सनातन धर्म तो माता की तरह व्यक्तियों का पोषण करता है। पिता की तरह रक्षण करता है। मित्र की तरह आनंद प्रदान करता है और बंधु-बांधवों की तरह स्नेह प्रदान करता है, उस सनातन धर्म की आलोचना समझ से परे है। धर्मां मातेव पुष्णानि धर्म: पाति पितेवच। धर्म: सखेव प्रीणाति, धर्म: स्निह्यति बंधुवत। अन्नपूर्णा स्तोत्र में कहा गया है कि माता चपार्वती देवी पिता देवो महेश्वर:। बांधवा: शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम। अर्थात भगवती पार्वती मेरी मां हैं। भगवान शंकर पिता हैं और संसार में जितने भी शिव भक्त हैं, वे सभी बंधु-बांधव हैं। इतना उदार है सनातन धर्म। जहां किसी के लिए कोई कटुता नहीं है। जहां सभी अपने हैं। यह अकेला धर्म है जो धरती पर रहने वाले सभी प्राणियों को अपना परिवार मानता है। वसुधैव कुटुंबकम। क्या कोई अपनी ही वंशबेल को अपने ही हाथों नष्ट करेगा, विचार तो इस बिंदु पर होना चाहिए।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि शाश्वतस्य च धर्मस्य अर्थात सनातन धर्म का आधार मैं हूं और मेरा आधार सनातन धर्म है। तात्पर्य यह है कि सनातन धर्म और मैं, ये दो नहीं हैं? प्रत्युत एक ही हैं। सनातन धर्म मेरा ही स्वरूप है गीता में अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण को शाश्वत धर्म का गोप्ता (रक्षक) बताया है (11/ 18)। भगवान भी अवतार लेकर सनातन धर्म की रक्षा किया करते हैं (4/8)। सुखस्यैकान्तिकस्य च के जरिये वे ऐकान्तिक सुख का आधार खुद को बताते हैं और अपने आधार को ऐकान्तिक सुख बताते हैं। चाहे ब्रह्म कहो या अविनाशी अमृत कहो? चाहे कृष्ण कहो, चाहे शाश्वत धर्म कहो। चाहे कृष्ण कहो या ऐकान्तिक सुख, एक ही बात है। इसमें कोई आधार आधेय भाव नहीं है? एक ही तत्व है। सनातन धर्म कल्पवृक्ष है। विषहारी मणि है। सदा सुख देने वाली कामधेनु है। धर्म कामघट है। कल्पलता, विद्या और कला की निधि है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि इसलिए तुम उस धर्म का प्रेम और आंदोलन से पालन करो। धर्म के पालन के बिना जीवन व्यर्थ है। धर्म:कल्पतरु: मणि: विषहर: रत्नं च चिंतामणि:। धर्म:कामदुधा: सदा सुखकरी,संजीवन चौषधी:। धर्म: कामघट: चकल्प लतिका विद्या कलानां खनि:, प्रेम्णैनं परमेणपालय हृदा नोचेत वृथा जीवनम। जब तक इस धरा धाम पर धर्म का आचरण होता रहा, राजसत्ता पर धर्म का अंकुश रहा तब तक नहि दरिद्र कोऊ दुखी न दीना। नहि कोई अबुध न लक्षण हीना, वाले हालात बने रहे। सर्वत्र सुख शांति रही। देश सोने की चिड़िया रहा। देश और पूरी धरती को सनातन धर्म ही बचा सकता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि सर्वान्कामान परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज। धर्म भी यही कहता है कि तुम मेरी रक्षा करो तो मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा। धर्मों रक्षति रक्षित: । काश? छिद्रान्वेषी जमात धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ पाती। धर्म हर तरह की बेईमानी से बचाता है। डकैत भी नहीं चाहते कि उनके गिरोह का कोई सदस्य असत्य बोले या बेईमानी करे। धर्म के बिना न परिवार चल सकता है और न देश। कारोबार के चलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। यही सत्य है और सत्य ही सनातन धर्म है। इसलिए सनातन धर्म के आलोचकों को अपने धर्म की शैशवावस्था और सनातन धर्म की उत्पत्ति काल का भी विचार करना चाहिए। जो धर्म भेदभाव से सर्वथा परे हैं, जो सबका हित चाहता है, वही सनातन धर्म है। सनातन धर्म ही ईश्वर का स्वरूप है। यह अकेला धर्म है जो भारतीय ऋषि चिंतन पर आधारित है। इसके सेवन से ही जीव जगत का सर्वतोभावेन कल्याण संभव है।
सियाराम पांडेय ‘शांत’