लखनऊ- अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष 2023 के दृष्टिगत उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद, लखनऊ एवं इंटीग्रल विश्वविद्यालय, लखनऊ द्वारा संयुक्त रूप से ‘‘बदलते जलवायु परिदृश्य में श्री अन्न (मिलेट्स) के उत्पादन एवं मूल्य संवर्धन हेतु अभिनव दृष्टिकोण” विषय पर शुक्रवार को राजधानी में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ।
इस संगोष्ठी में कृषि वैज्ञानिकों ने श्री अन्न के अधिकाधिक उत्पादन को लेकर मंथन किया और मोटे अनाजों को शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करने पर जोर दिया। लखनऊ स्थित इंटीग्रल विश्वविद्यालय के केंद्रीय सभागार में आयोजित संगोष्ठी के मुख्य अतिथि डा. एके सिंह, कुलपति, रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय विश्वविद्यालय, झाँसी ने कहा कि पूर्व के वर्षों में मोटा अनाज मिश्रित फसल के रूप में लिया जाता था किंतु धीरे-धीरे धान तथा गेहूं ने इसका स्थान ले लिया। वर्तमान में सरकार द्वारा मोटे अनाज के उत्पादन तथा इसकी जागरूकता के लिये इतने प्रयास किये जा रहे हैं जितना कि हरित क्रांति में भी नहीं किया गया था।
उन्होंने कहा कि मोटा अनाज के विलुप्त होने का एक कारण यह भी है कि धान तथा गेहूं का उत्पादन इससे अधिक था इसलिये लोगों ने इस पर कम ध्यान दिया तथा धीरे-धीरे विलुप्तता की कगार पर पहुंच गये। मोटे अनाज का प्रसंस्करण कठिन होने के कारण तथा उत्पादकता में कमी होने के कारण लोगों ने इसे कम महत्व दिया। वर्तमान में मोटे अनाज की उत्पादकता बढ़ी है। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से ज्वार, बाजरा तथा कहीं कहीं पर रागी का उत्पादन होता है।
उन्होंने कहा कि मोटा अनाज उत्पादों का शहरी क्षेत्रों में ही प्रयोग किये जाने का प्रचलन है। मोटे अनाज को शहरी क्षेत्रों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में भी प्रयोग तथा प्रसंस्करण हेतु प्रोत्साहित करने के लिये जागरुकता कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। उन्होंने कहा कि मोटे अनाज के उत्पाद केवल स्नैक्स में न प्रयोग होकर मुख्य भोजन में सम्मिलित किए जाने चाहिये इसके लिये सामूहिक रूप से कार्य किये जाने कर आवश्यकता है। उन्होंने मोटा अनाज को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने पर जोर दिया।
स्वास्थ्य के लिये अत्यंत लाभकारी है मोटा अनाज
कार्यक्रम में विशिष्ट अतिथि के रूप में इंटीग्रल विश्वविद्यालय के कुलपति, डा. जावेद मुसर्रत ने अपने उद्बोधन में कहा कि मोटा अनाज जलवायु रेसीलियंट होता है तथा इनमें कम रोग व्याधियां लगने के साथ ही पोषक तत्वों से परिपूर्ण होता तथा निम्न ग्लाइसेमिक इंडेक्स होने के कारण स्वास्थ्य के लिये अत्यंत लाभकारी है। अतः इनको खाद्य श्रृखंला में लाये जाने की आवश्यकता है। इसके लिये सभी संस्थाओं तथा वैज्ञानिकों को सामूहिक रूप से कार्य करना होगा।
राजस्थान और आंध्र प्रदेश के बाद सबसे अधिक उप्र में होता है मोटा अनाज
डॉ. संजय सिंह, महानिदेशक, उप्र कृषि अनुसंधान परिषद, लखनऊ ने कहा कि यह संगोष्ठी अपर मुख्य सचिव, कृषि, कृषि शिक्षा एवं अनुसंधान, उत्तर प्रदेश, डा. देवेश चतुर्वेदी की प्रेरणा तथा निर्देशों के क्रम में आयोजित की गई है, उनके द्वारा प्रदेश में मोटे अनाज के उत्पादन के लिये अथक प्रयास किये जा रहे हैं। महानिदेशक, उपकार ने मोटा अनाज के उत्पादन के संबंध में किसानों की स्थिति, दायरे, चुनौतियों और अवसरों के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि राजस्थान में सबसे अधिक मोटे अनाज का क्षेत्रफल है, उसके बाद आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश में मोटे अनाज की खेती होती है। उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से ज्वार, बाजरा, सावां कोंदो, रागी आदि फसलें ली जा रही हैं। यह फसलें जलवायु परिवर्तन के अनुकूल, कम पानी, कम पोषक तत्व तथा किसी भी प्रकार की भूमि में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं। प्रदेश में सरकार द्वारा कृषि उत्पादन संगठनों (एफपीओ) को मोटा अनाज के उत्पादन तथा इसके प्रसंस्करण तथा उत्पाद बनाने हेतु बढ़ावा दिया जा रहा है।
तकनीकी सत्र भी हुए आयोजित
कार्यक्रम को एस.डब्ल्यू. अख्तर, चांसलर, इंटीग्रल यूनिवर्सिटी, डा. आर. के. सिंह, पूर्व निदेशक शोध, आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, अयोध्या और डा. पी.एस. ओझा, राज्य सलाहकार, एफ.पी.ओ. प्रकोष्ठ, उत्तर प्रदेश सरकार ने भी संबोधित किया। संगोष्ठी के तकनीकी सत्र-प्रथम में डा. वी. वेंकटेश भट्ट, प्रधान वैज्ञानिक, भारतीय मिलेट्स अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद ने भारत और उत्तर प्रदेश में मोटे अनाज के अनुसंधान और विकास के अवलोकन पर अपना व्याख्यान दिया। आर.के. सिंह, अपर कृषि निदेशक (प्रसार), कृषि निदेशालय, लखनऊ, डा. कमालुद्दीन, प्रोफसर, बांदा कृषि एवं प्रौ. वि. वि., बांदा और डा. कीर्ति मणि त्रिपाठी, वैज्ञानिक, एसवीपीयूएटी, केवीके बुलंदशहर ने मोटे अनाज के महत्व पर प्रकाश डाला।
संगोष्ठी के द्वितीय तकनीकी सत्र की अध्यक्षता डा. बिजेन्द्र सिंह, कुलपति, कृषि विश्वविद्यालय, अयोध्या द्वारा की गई। इस दौरान डा. अतुल कुमार सिंह, वैज्ञानिक-डी और प्रभारी, राज्य कृषि मौसम विज्ञान केंद्र, आईएमडी, लखनऊ, डा. रामवंत गुप्ता, एसोसिएट प्रोफेसर, डीडीयू विश्वविद्यालय, गोरखपुर और डा. श्वेता, सहायक प्रोफेसर, सीएसएयूएटी, कानपुर ने विभिन्न संदर्भों पर प्रकाश डाला।
संगोष्ठी के तृतीय तकनीकी सत्र में मिलेट्स की पैकेजिंग, मिलेट्स के उत्पादन एवं मूल्य संवर्धन में एफपीओ की भूमिका पर चर्चा हुई, साथ ही विभिन्न एफपीओ द्वारा अपने विचार प्रस्तुत किये गये।
ये रहीं कार्यशाला की प्रमुख संस्तुतियां
कार्यशाला में विस्तृत विचार-विमर्श के उपरांत प्रमुख संस्तुतियां दी गईं, जिसमें कहा गया कि मिलेट्स की अल्पकालीन, अधिक उत्पादकता एवं कीट एवं व्याधि अवरोधी प्रजातियों का चयन व विकास किया जाए, साथ ही साथ बायोफोर्टिफाइड विकसित प्रजातियों को क्षेत्रफल विस्तार में सम्मिलित किया जाए। मिलेट्स के उपयोग को पीडीएस, मिड डे मील में समाहित करने के साथ साथ ग्रामीण क्षेत्रों की भोजन प्रणाली में एक आवश्यक घटक के रूप में समाहित किया जाए। मिलेट्स के गुणवत्तायुक्त बीज उत्पादन हेतु सीड हब विकसित किए जाएं तथा ब्रीडर सीड उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए। विभिन्न मिलेट्स पर क्षेत्र विशेष की उपयुक्तता हेतु अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जाए। मिलेट्स के मूल्य संवर्धित उत्पादों के दीर्घकालीन भण्डारण की तकनीकों का मानकीकरण सुनिश्चित किया जाए।
संगोष्ठी के साथ मिलेट्स प्रदर्शनी का भी हुआ आयोजन
राष्ट्रीय संगोष्ठी के दौरान कार्यक्रम स्थल पर मिलेट्स प्रदर्शनी भी आयोजित की गई, जिसमें प्रदेश के विभिन्न जनपदों के एफपीओ, कृषि विज्ञान केन्द्रों के साथ कृषि विश्वविद्यालय, अयोध्या के सामुदायिक विज्ञान संकाय तथा इंटीग्रल विश्वविद्यालय के कृषि विभाग एवं बायोइंजीनियरिंग विभाग ने प्रतिभाग किया। प्रदर्शनी में प्रतिभाग करने वाले समस्त प्रतिभागियों को सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त शोध पत्रों के मूल्यांकन हेतु एक तकनीकी सत्र आयोजित किया गया, जिसमें विभिन्न संस्थानों से प्राप्त शोध पत्रों का परीक्षण कर उन्हें भी सम्मानित किया गया।
National Seminar on Millets held in Lucknow