स्वामी विवेकानंद जी को भारत की मजबूत संस्कृति को विश्व पटल पर रखने के लिए जाना जाता है. इसके लिए उन्होंने अपने जीवन में कई देशों की यात्राएं कीं. धर्म सम्मेलनों में उन्होंने वेदों के दर्शन को सबके सामने रखा. जिसके बाद विश्व ने माना कि सनातन धर्म के वेद-पुराण सिर्फ धार्मिक पु्स्तकें और कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन जीने का वैज्ञानिक तरीका है. यह सामाजिक समस्याओं से निपटने का एक बड़ा माध्यम हैं. स्वामी विवेकानंद आदिगुरु शंकराचार्य के अद्वैतवाद दर्शन से अत्याधिक प्रभावित थे. उन्हीं के दर्शन से प्रभावित होकर स्वामी जी ने नव-वेदांत दर्शन को लोगों को सामने रखा.
स्वामी विवेकानंद का नव वेदांत दर्शन
विकेकानंदजी के नव वेदांत दर्शन के अनुसार, माया को पूरी तरह असत्य नहीं कहा जा सकता. उन्होंने कहा कि यह जगत सापेक्ष सत्य है, हमें इसे पूरी तरह नकारने की बजाय समझकर, जीना सीखना होगा. साथ ही स्वामी जी ने अपने नव वेदांत दर्शन में ज्ञान के साथ कर्म को भी महत्वपूर्ण बताया.
स्वामी जी ने कहा कि मोक्ष के लिए सिर्फ ज्ञान नहीं, अच्छे कर्म करने की भी आवश्यक है. इसीलिए उन्होंने अपने नव वेदांत दर्शन को आधुनिक परिस्थितियों को देखते हुए प्रस्तुत किया. उनका यह भी मानना था कि धर्म और ज्ञान केवल साधु-संतों या फिर विशेष लोगों तक ही सीमित न रखा जाए, बल्कि इसे हर वर्ग के व्यक्ति तक पहुंचाया जाए, तभी भारत को फिर से विश्व गुरु बनाया जा सकता है.
स्वामी विवेकानंद जी का नव वेदांत दर्शन सिर्फ धार्मिक तौर पर ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक सुधार भी था. स्वामी जी ने जाति-पंथ, ऊंच-नीच, छुआछूत और भेदभाव से ऊपर उठकर सभी को समान स्तर पर लाने की बात की. इसके लिए सुधार, शिक्षा और वैज्ञानिक सोच को बढाने पर जोर दिया.
विदेश यात्रा का विचार और धन का प्रबंध
स्वामी विवेकानंद जी देश के विभिन्न हिस्सों का भ्रमण पर लोगों के बीच जागृति लाने के अभियान में लगे हुए थे. इसी बीच उन्होंने विदेश जाकर हिंदू धर्म के उच्च सिद्धांतों का प्रचार करने का निश्चय किया. उन्हें समाचार पत्रों के माध्यम से अमेरिका के शिकागो में होने वाली सर्व धर्मसभा के बारे में पता चला. इस सम्मेलन में सनातन धर्म की ओर से प्रतिनिधित्व करने वाला कोई नहीं था.
स्वामी जी ने शिकागो धर्म सम्मेलन में सनातन का प्रतिनिधित्व करने का निश्चय किया. वह चाहते थे कि अपने महान धर्म के दर्शन को विश्व के सामने रखा जाए, जिससे विदेशी अध्यात्म प्रेमी भारत की ओर आकर्षित होंगे, साथ ही विदेशी सभ्यता से प्रभावित होकर अपनी प्राचीन संस्कृति से दूर हो रहे भारतवासियों की भी आंखें खुलेंगी. सनातन के प्रति बन चुकी उनकी हीनभावना भी दूर होगी.
स्वामी जी के विदेश जाने की पूरी योजना तैयारी हो गई थी, लेकिन धन का प्रबंध नहीं हो पाया था. स्वामी जी धन का इंतजाम कैसे हो यह सोच रहे थे, उसी समय खेतड़ी स्टेट के दीवान जगमोहनलाल वहां पहुंचे और कहा की आप ने राजा साहब को पुत्र होने का आशीर्वाद दिया था, आपका आशीर्वाद फलीभूत हुआ. राजा साहब अजीत सिंह को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई है. महाराज ने आपको आनन्दोत्सव में आमंत्रित किया है.
स्वामी जी खेतड़ी पहुंचे और नवजात को आशीर्वाद दिया. खेतड़ी नरेश अजीत सिंह को स्वामी जी के विदेश यात्रा की जानकारी मिल गई थी. उन्होंने विदेश यात्रा का पूरा खर्च वहन करने का स्वामी जी से अनुरोध किया. स्वामी जी ने खेतड़ी नरेश का अनुरोध स्वीकार कर लिया, जिसके बाद विदेश यात्रा की अंतिम तैयारी भी पूरी हो गई.
खेतड़ी नरेश ने रखा था ‘विवेकानंद’ नाम
विदेश यात्रा से पहले स्वामी जी नरेंद्र व अन्य कई नामों से जाने जाते थे. लेकिन उनका कोई स्थाई नाम नहीं था. स्वामी जी विदेश यात्रा पर जाने के लिए जयपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे. यहां पर खेतड़ी नरेश ने उनसे पूछा की स्वामी जी आप अमेरिका जाकर किस नाम से सनातन का प्रचार करेंगे. जिस पर स्वामीजी ने कहा कि अभी तक कोई नाम नहीं रखा है. राजा ने कहा कि स्वामीजी! आपको ‘विवेकानंद’ नाम कैसा लगता है? स्वामी जी ने तुरंत उत्तर दिया, यह नाम तो बहुत सुंदर है. उसी दिन से स्वामीजी ‘विवेकानंद’ के नाम से प्रसिद्ध हुए.
31 मई 1893 को स्वामीजी बंबई के बंदरगाह से अमेरिका जाने वाले जहाज में सवार हो गए. वे कोलम्बो, पिनांग, सिंगापुर, हांगकांग, नागासाकी, ओसाका, टोकियो आदि बड़े नगरों को देखते हुए अमेरिका के बैंकोवर बंदरगाह पर उतरे. यहां से वह रेलमार्ग से शिकागो पहुंचे. यहीं पर 11 सितंबर 1893 को स्वामी जी ने अपना ऐतिहासिक उद्बोधन दिया था. जिसे सुनकर धर्म सम्मेलन में मौजूद लोग स्तब्ध रह गए थे.
जापान और चीन के प्रति स्वामी जी के विचार
31 मई 1893 को बंबई से शिकागो रवाना होने के क्रम में स्वामी विवेकानंद ने चीन और जापान के कई शहरों का भ्रमण किया. इस दौरान उन्होंने दोनों देशों के समाज को करीब से समझा. स्वामी जी ने चीन और जापान की यात्रा करने के बाद पुस्तक के माध्यम से अपने अनुभवों को साझा किया है.
चीन के बारे में विचार
स्वामी विवेकानंद ने चीन में लोगों की दृढ़ता व उनके परिश्रम की खूब प्रशंसा की. स्वामी जी जब शिकागो यात्रा पर थे, तब उन्होंने बंदरगाह के निकट चीन के कई शहरों का भ्रमण किया. उन्होंने देखा कि चीनी अत्यधिक गरीबी के बावजूद अपने दैनिक जीवन में संघर्ष करते हैं. वह अपनी जरूरतों को पूरी करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं. साथ ही स्वामी जी ने चीनी बच्चों की दार्शनिक प्रवृत्ति और कम उम्र में काम करने की क्षमता की भी प्रशंसा की.
जापान के बारे में विचार
स्वामी विवेकानंद ने जापानी शहरों की स्वच्छता, व्यवस्था और वहां के लोगों की अनुशासनप्रियता की प्रशंसा की. 1893 में स्वामी जी ने देखा कि जापानी लोगों अपनी वर्तमान जरूरतों को पूरी करने के साथ-साथ अपनी सेना गठित करने पर भी ध्यान दे रहे हैं. स्वामी जी जापानी संस्कृति में भारतीय प्रभाव को भी देखा. उन्होंने महसूस किया कि जापान के लोग भारत को अपनी स्वप्नभूमि मानते हैं.
युवाओं के प्रति स्वामी जी के विचार
स्वामी विवेकानंद के विचार युवाओं के लिए एक प्रेरणा का स्रोत हैं. उनका मानना था कि किसी भी राष्ट्र को महान बनाने के लिए युवाओं का भूमिका सबसे अहम है. बस उनकी ऊर्जा और उत्साह को सही दिशा में उपयोग करने की जरूरत है.
स्वामी जी के विचार युवाओं को उद्देश्यों के प्रति समर्पित रहने व भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए सजग रहने के लिए प्रेरित करते हैं. स्वामी जी का मानना था कि मजबूत शरीर और मजबूत मन ही व्यक्ति को निर्धारित लक्ष्यों को पाने में मदद करता है. इसीलिए स्वामी जी ने युवाओं को आध्यात्मिक और शारीरिक रूप से मजबूत होने के लिए प्रेरित किया.
न्यूयार्क में ‘वेदांत सोसाइटी’ की स्थापना
स्वामी ने 1893 में शिकागो धर्म सम्मेलम में अपना ऐतिहासिक संबोधन दिया, जिसके बाद अमेरिका में उनके बड़ी संख्या में फॉलोअर्स हो गए. अमेरिका में सनातन के प्रचार प्रसार के लिए स्वामी जी 2 साल तक न्यूयार्क में रूके. यहां रहते हुए उन्होंने 1894 में पहली ‘वेदांत सोसाइटी’ की स्थापना की. स्वामी जी ने ‘वेदांत सोसाइटी’ स्थापित करने वेदांत दर्शन को पश्चिमी दुनिया में प्रसारित किया. इस दौरान उन्होंने पूरे यूरोप का व्यापक भ्रमण किया और मैक्स मूलर और पॉल डूसन जैसे प्रसिद्ध विद्वान के साथ संवाद किया.
वैज्ञानिकों के साथ संवाद
स्वामी विवेकानंद ने निकोला टेस्ला जैसे प्रख्यात वैज्ञानिकों के साथ तर्क-वितर्क भी किए. इससे पता चलता है कि वे विज्ञान और अध्यात्म के बीच के संबंधों को समझने में रुचि रखते थे.